________________
गुणभूषण-श्रावकाचार
पहला उद्देश
प्रणम्य त्रिजगत्कीतिं जिनेन्द्रं गुणभूषणम् । संक्षेपेणैव संवक्ष्ये धर्मं सागारगोचरम् ॥ १ संसारेऽत्र मनुष्यत्वं तत्रापि सुकुलीनता । यस्मिन् विवेकस्तत्रापि सद्धर्मत्वं सुदुर्लभम् ॥२ नहितं विहितं कितना सद्धर्ममना यदि । नाहितं विहितं कि तन्नासद्धमंमना यदि ॥ ३ नर-नाग - सुरेशत्वमथान्यच्च समीहितम् । धर्मं विना कथं तत्स्याद्यथा वृष्टिविना घनम् ॥४ स्वर्ग - मोक्षफलो धर्मः स च रत्नत्रयात्मकः । सम्यक्त्वज्ञानचारित्रत्रयं रत्नत्रयं मतम् ॥५ स्यादाप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानं यन्मलोज्झितम् । गुणान्वितं च सम्यक्त्वं तद्वि-त्रि- दशभेदभाक् ॥६ आप्तः स्याद्दोष निर्मुक्तः सर्वज्ञः शास्त्रदेशकः । क्षुधा तृषा जराऽऽतङ्को रागो मोहश्च विस्मयः ॥७ रुजा मृत्यु चिन्ता च स्वेदो निद्रा रतिर्जनिः । विषादो द्विन्मदः खेदो दोषाश्चाष्टादश स्मृताः ॥८ सर्वज्ञत्वं विना नैषोऽतीन्द्रियार्थोपदेशकः । विना सच्छास्त्र देशित्वान्नाप्तत्वमपि सम्भवेत् ॥९ आप्तोदितं प्रमाभूतमागमः स निगद्यते । द्वेषात्स रागवक्तृत्वाभावात्तस्य प्रमाणता ॥१०
तीन जगत् में जिनकी कीर्ति व्याप्त है और जो सम्यक्त्व-ज्ञानादि अनन्त गुणोंवाले आभूषणों के धारक हैं ऐसे जिनेन्द्रदेवको प्रणाम करके मैं गुणभूषण संक्षेपसे ही श्रावक - सम्बन्धी धर्मको कहूँगा ||१|| इस संसारमें सर्वप्रथम तो मनुष्य भव पाना ही अतिदुर्लभ है, उसमें भी उत्तम कुलमें जन्म पाना अतिकठिन है । उस कुलीनताके पानेपर भी हित-अहितका विवेक पाना और भी दुर्लभ है। विवेक पानेपर भी उत्तम धर्मका पाना और भी दुर्लभ है ||२|| यदि उत्तम धर्म पाकर भी जिस मनुष्य ने अपना हित नहीं किया, तो उससे क्या लाभ है ? और यदि असद्- धर्म - बुद्धि होकर अहित नहीं क्रिया, तो उससे क्या है ||३|| यदि तुम नरेन्द्रपना, सुरेन्द्रपना अथवा और किसी महान् पद पानेकी इच्छा रखते हो, तो धर्मके विना वह कैसे प्राप्त हो सकता है ? जैसे कि मेघके विना वर्षा प्राप्त नहीं हो सकती ॥४॥ धर्म ही स्वर्ग और मोक्षरूप फलको देता है । बह धर्म रत्नत्रय स्वरूप है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंको रत्नत्रय माना गया है ||५|| सम्यग्दर्शनका स्वरूप और भेद — सत्यार्थदेव आगम और तत्त्वोंका जो पच्चीस दोषों से रहित और आठ गुणोंसे सहित श्रद्धान है, वह सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन है । उसके दो, तीन और दश भेद कहे गये हैं || ६ || आप्तका स्वरूप - जो अठारह दोषोंसे रहित है, सर्वज्ञ है और शास्त्रका उपदेशक है, वह आप्त कहलाता है । भूख, प्यास, बुढ़ापा, आतंक, राग, मोह, विस्मय, रोग, मृत्यु, चिन्ता, स्वेद ( पसीना ), निद्रा, रति, जन्म, विषाद, द्वेष, मद और खेद ये अठारह दोष माने गये हैं । इनसे रहित पुरुष ही सर्वज्ञ हो सकता है || ७-८ || सर्वज्ञताके विना कोई पुरुष अतीन्द्रिय पदार्थोंका उपदेशक नहीं हो सकता है और सत्य शास्त्र के उपदेशके विना आप्तपना भी सम्भव नहीं है ||९|| आगमका स्वरूप — जो आप्तके द्वारा कहा गया हो, वह आगम प्रमाणभूत क
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org