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प्रश्नोत्तरत्रावकाचार ये कुर्वन्ति जिनेशिनां सुविमलां सारां प्रतिष्ठां बुधाः सद्धर्मकधुरामसंख्यजनसत्पुण्यप्रदां सौख्यदाम् । ते धन्याः सुभगां श्रियं सुखकरां लब्ध्वा त्रिलोकोद्भवां
पश्चाद्यान्ति शिवालयं सुखनिधि सद्धर्मसंवर्द्धनात् ॥२४५ इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते प्रश्नोत्तरोपासकाचारे चतुर्विधदानप्ररूपको नाम
विंशतितमः परिच्छेदः ।।२०।।
पुण्यका घर है, इसलिये जो भव्य पुरुष ऐसे महा सुन्दर प्रतिबिम्बका निर्माण कराते हैं, जिनप्रतिमा बनवाते हैं वे अनेक सुखोंको भोगकर अवश्य ही मोक्ष प्राप्त करते हैं ।।२४४॥ भगवान् जिनेन्द्रदेवकी प्रतिष्ठा कराना सबमें सारभूत है, निर्मल गुणोंकी खानि है, श्रेष्ठ धर्मकी एक मात्र पृथ्वो है अर्थात् श्रेष्ठ धर्मकी उत्पत्ति प्रतिष्ठासे ही होती है, यह असंख्यात लोगोंको पुण्य कर्मोका उपार्जन करानेवाली है और अनन्त सुख देनेवाली है इसलिये जो विद्वान् जिनप्रतिमाको प्रतिष्ठा कराते हैं वे संसारमें धन्य हैं और वे ही सुन्दर हैं । ऐसे लोग श्रेष्ठ मोक्ष मार्गरूप धर्मकी वृद्धि करनेके कारण तीनों लोकोंमें उत्पन्न होनेवाली और अपरिमित सुख देनेवाली लक्ष्मोका उपभोग कर अन्तमें अनन्त सुखकी निधि ऐसे मोक्षस्थानमें जा विराजमान होते हैं ।।२४५।। इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्तिविरचित प्रश्नोत्तरश्रावकाचारमें चारों प्रकारके दानके स्वरूपको
वर्णन करनेवाला यह बीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥२०॥
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