Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 444
________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार ४११ अशुचिस्थानजं घोरं तीवदुःखाकरं भुवि । महामुनिजनैस्त्याज्यं सर्पागारमिवानिशम् ॥१२ सेव्यं नीचजनैनित्यं पशुभिर्गर्दभादिभिः । आदरेण शठेर्दुष्टैः मन्यमानैरिक्षामृतम् ॥१३ नार्यङ्गघट्टनोद्भूतं श्वभ्रतिर्यग्गतिप्रदम् । दाहक पापदं दुष्टं पापमूलं घृणास्पदम् ॥१४ बहुदोषसमायुक्तं मैथुनं चिन्तयेत्सदा । ब्रह्मचारी विनिर्मुक्तो दोषेब्रह्मवृषाप्तये ॥१५ स्त्रीणां स्वभावतः काये निन्द्ये जन्तुसमाकुले । जीवोत्पत्तिप्रदेशे च को ज्ञानी रमतेऽशुचौ ॥१६ योनिस्तनप्रदेशेषु हृदि कक्षान्तरेष्वपि । अतिसूक्ष्माः मनुष्याश्च जायन्ते योषितां सदा ॥१७ नवलक्षाङ्गिनोऽत्रैव म्रियन्ते मैथुनेन भोः । इत्येवं जिननाथेन प्रोक्तं केवललोचनात् ॥१८ कसेन भृता यद्वान्नालिकानलयोगतः । ज्वलत्येव तथा जीवा नियन्ते लिङ्गघट्टनात् ॥१९ मैथुनेन महापापं जायते प्राणिनां ध्रुवम् । जीवघातान्महारागसम्भवात् श्वभ्रसाधकम् ॥२० वरं हालाहलं भुक्तमङ्गिनां न च मैथुनम् । भवैकमृत्युदं संख्याव्यतीतभवदुःखदम् ॥२१ वरमालिङ्गिता क्रुद्धा सपिणी फणसंयुता । न च स्त्री श्वभ्रगेहस्य प्रतोलो भूरिदुःखदा ॥२२ ब्रह्मचारी पुमान् नित्यं त्यजेत्सङ्ग सुयोषिताम् । कलशयात्यन्तमहिसङ्गमिवाशुभम् ॥२३ एकत्र वसतिः श्लाघ्या सर्पव्याघ्रारितस्करैः । न च नारीसमीपेऽपि क्षणमेकं कलङ्कवत् ॥२४ . दूरसे ही इसका त्याग कर देते हैं, यह सर्पके घरके समान है, रात्रिमें नीच लोगोंके द्वारा सेवन किया जाता है, गधा आदि नीच पशु सदा इसका सेवन करते हैं अथवा दुष्ट मूर्ख इसे अमृत समझकर इसका आदर करते हैं, यह स्त्रियोंके शरीरके संघट्टनसे उत्पन्न होता है, नरक तियंच आदि कुगतियोंको देनेवाला है, दाह कंपा आदि अनेक रोगोंको उत्पन्न करनेवाला है, पापकी जड़ है, अत्यन्त घृणित है, और अनेक दोषोंसे भरपूर है ! ब्रह्मचारियोंको अपने निर्दोष ब्रह्मचर्यका पालन करनेके लिये इस स्त्रीसेवनका सदा इसी प्रकार चितवन करते रहना चाहिये ।।११-१५॥ स्त्रियोंका शरीर स्वभावसे ही निंद्य है, अनेक जन्तुओंसे भरा हुआ है और अनेक जीवोंके उत्पन्न होनेका स्थान है ऐसे अपवित्र और अशुद्ध स्त्रियोंके शरीरमें भला कौन ज्ञानी प्रेम करेगा ॥१६॥ स्त्रियोंकी योनिमें, स्तनोंमें, कांखोंमें अत्यन्त सूक्ष्म मनुष्य सदा उत्पन्न रहते हैं ॥१७॥ उन जीवोंकी संख्या नौ लाख है और वे सब स्त्रीसेवन करनेसे मर जाते हैं ऐसा श्री जिनेन्द्रदेवने अपने केवलज्ञान रूपी नेत्रोंसे देखकर बतलाया है ॥१८|| जिस प्रकार कपास वा रुईसे भरी हुई नाली अग्निके संयोगसे जल जाती है उसी प्रकार स्त्री सेवन करनेसे योनिके सब जीव मर जाते हैं ॥१९॥ स्त्री सेवन करनेसे अनेक जीवोंका घात होता है और नरकमें पहुंचानेवाला महा राग उत्पन्न होता है इसलिये मनुष्योंको स्त्री सेवन करनेसे महापाप उत्पन्न होता है ॥२०॥ मनुष्योंको हलाहल विष खा लेना अच्छा, परन्तु स्त्री सेवन करना अच्छा नहीं, क्योंकि हलाहल विष खानेसे एक भवमें ही मृत्यु होगी परन्तु स्त्रीसेवन करनेसे असंख्यात भवोंमें महा दुःख प्राप्त होगा ॥२१॥ फणा निकाले हुए क्रोधित हुई सर्पिणीका आलिंगन कर लेना अच्छा परन्तु महा दुःख देनेवाली और नरकरूपी घरकी देहलीके समान स्त्रीका आलिंगन करना अच्छा नहीं ।।२२।। जिस प्रकार सर्पिणीकी दुःख देनेवाली संगति अच्छी नहीं उसी प्रकार ब्रह्मचारियोंको कुछ नहीं तो कलंक लगनेकी शंकासे ही स्त्रियोंकी संगतिका त्याग कर देना चाहिये ।।२३।। साँप, बाघ, शत्रु व चोर आदिकोंके साथ रहना तो अच्छा परन्तु स्त्रियोंके समीप क्षणभर भी रहना अच्छा नहीं क्योंकि स्त्रियोंके साथ रहने में क्षणभरमें ही कलंक लगनेकी शंका रहती है ॥२४॥ जिस मकानमें स्त्रियोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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