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प्रश्नोत्तरत्रावकाचार
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न केशवारणं कुर्यात्स्नानं च व्रततत्परः । यूकादिभयतो रागपापहिसादिकारणम् ॥२६ लोचः प्रकल्पते नित्यं वैराग्यादिविवर्द्धकः । धीराणां त्यक्तलोभोऽपि कातराणां स्ववीर्यदः ॥२७ संस्तरे कोमले नैव रागयुक्ते भजेक्वचित् । कामादिभयतोऽघाद्वा शयनं ब्रह्मरक्षकः ॥२८ विधत्ते शयनं योऽत्र कोमले संस्तरे बुधः । मन्मथादिभयात्तस्य ब्रह्मचर्य पलायते ॥२९ वरं सद्वतिनां शस्त्रादिकेषु शयनं न च । तूलिकादिषु संरागपापकामादिहेतुषु ॥३० कदोपवेशनं नैव कर्तव्यं गद्यकादिषु । ब्रह्मव्रतधरैस्तस्य रागद्वेषसुखादिकैः ॥३१ आसनं ये प्रकुर्वन्ति गद्यकादिषु कोमले । कुतो ब्रह्मवतं तेषां स्वात्मसुखरतात्मनाम ॥३२ शौचाथं संगृहीतव्यो निष्पापः सत्कमण्डलुः । वीतरागपरित्यक्तभयः सब्रह्मचारिभिः ॥३३ सद्धात्वादिसमुत्पन्नः संकीर्णमुख एव सः । अष्टमध्ये देशे न ग्राह्यो दोर्भयप्रदः ॥३४ ततो बृहन्मुखो योग्यः स्वल्पमूल्यो कमण्डलुः । प्रासुको भयसंत्यक्तो ग्राह्यो हिंसादिवजितः ॥३५ कोपीनं खण्डवस्त्रां च गृहीतव्यं व्रतान्वितैः । अल्पमूल्यं परैर्दत्तं त्यक्तरागभयादिकम् ॥३६ बृहद्वस्त्रां न चादेयं दक्षैरत्यन्तमूल्यजम् । प्राणान्ते पापसंरागचिन्ताशोकभयादिदम् ॥३७ गृह्णन्ति सुन्दरं वस्त्रां ये लोभेन कुमार्गगाः । नश्येद्धादिसध्यानं तेषां नाशादिसम्भयात् ॥३८ चाहिये वा कैंचीसे कतरवा डालना चाहिये अथवा लोंच कर देना चाहिये ॥२५॥ व्रत पालन करने में तत्पर रहनेवाले क्षुल्लक श्रावकको लिख जू आदि पड़नेके डरसे बाल नहीं रखना चाहिए और राग पाप वा हिंसा होनेके डरसे स्नान नहीं करना चाहिए ॥२६।। केशोंका लोंच करना वैराग्यको बढ़ानेवाला है, धीरवीर पुरुषोंको लोभका त्याग करनेवाला है और कातर जीवोंको अपनी शक्ति बढ़ानेवाला है। इसलिये सदा लोंच करना ही अच्छा है ॥२७॥ ब्रह्मचर्यकी रक्षा करनेवाले व्रती क्षुल्लकोंको राग बढ़ानेवाले कोमल बिछौनेपर कभी नहीं सोना चाहिए अथवा कामोद्वेग होनेके डरसे वा पाप उत्पन्न होनेके डरसे ऐसे बिछौनेपर कभी नहीं सोना चाहिए ॥२८॥ जो विद्वान् व्रती कोमल बिछौनेपर सोता है उसका ब्रह्मचर्य कामदेवके डरसे दूर भाग जाता है ॥२९।। व्रती क्षुल्लकोंको शस्त्रोंपर सो जाना अच्छा परन्तु राग बढ़ानेवाले, पाप तथा कामको उत्पन्न करनेवाले ऐसे रुई आदिके बिछौनेपर सोना अच्छा नहीं ॥३०॥ राग द्वेष और सुखका त्याग कर देनेवाले ब्रह्मचारी व्रतियोंको गहा आदि कोमल आसनोंपर कभी नहीं बैठना चाहिए ॥३१।। अपने आत्माको सुखमें तल्लीन कर देनेवाले जो व्रती गद्दा आदि कोमल आसनोंपर बैठते हैं उनके ब्रह्मचर्यव्रत किस प्रकार पल सकता है ? अर्थात् कभी नहीं ॥३२॥ ब्रह्मचारी क्षुल्लकोंको शौचके लिये पापरहित, वीतरागरूप, और सब तरहके भयोंसे रहित ऐसा कमण्डलु ग्रहण करना चाहिए ।।३३।। जो अच्छी (अधिक मूल्यकी) धातुओंसे बना हो, जिसका मुँह छोटा हो, और जिसका मध्यदेश दिखाई न पड़ता हो ऐसा भय उत्पन्न करनेवाला कमण्डलु वा बर्तन चतुर व्रतियोंको कभी नहीं लेना चाहिए ॥३४।। इसलिए जिसका मुह बड़ा हो, जो योग्य हो, थोड़े मूल्यका हो, प्रासुक हो, जिसके रखने में किसी तरहका भय न हो और जिससे वा जिसके निमित्त किसी तरहकी हिंसा न होती हो ऐसा कमण्डलु ग्रहण करना चाहिए ॥३५।। व्रती क्षुल्लकोंको कौपीन और खण्ड वस्त्र रखना चाहिए और वह ऐसा रखना चाहिए जिसके रखने में न तो राग हो न किसी तरहका भय हो, जो थोड़े मूल्यका हो और दूसरेके द्वारा दिया गया हो ॥३६॥ चतुर क्षुल्लकोंको प्राण नाश होनेपर भी अधिक मूल्यका और बड़ा वस्त्र कभी ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा वस्त्र पाप राग चिन्ता शोक और भय आदि अनेक विकार व पाप उत्पन्न करनेवाला
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