Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 427
________________ ३९४ श्रावकाचार-संग्रह स मुनिः वृक्षमूलेऽपि स्थितो ध्यानेन शुद्धधीः । सहमानो महावाघां दंशशीता दिसम्भवाम् ॥१३६ प्रभातेऽतिमहाकोपात्कृत्वा युद्धं परस्परम् । तन्निमित्तेन घातेन मृतौ देवलधर्मलो ॥१३७ विद्वेषेण क्रमेणैव चातंध्यानप्रयोगतः । प्रजातौ शूकरव्याघ्रौ क्रूरौ तौ कोपसंयुतौ ॥१३८ तिष्ठति शूकरो यत्र गुहायां तत्र चैकदा । स्थितो समाधिगुप्ताख्यत्रिगुप्ताख्यमुनीश्वरौ ॥१३९ दृष्ट्वा तो सोऽपि पुण्येन भूत्वा जातिस्मरः स्वयम् । प्रणम्य मुनिसत्पादो स्थितः शाम्यान्वितोऽशठः ॥ १४० तस्याग्रे कथितो धर्मः मुनिना कृपया स्वयम् । स्वर्गमुक्तिकरः सारः श्रावकव्रतसूचकः ॥ १४१ श्रुत्वा धर्मं सुखागारं त्यक्त्वा पापं सुदुस्त्यजम् । स्थितो मुनिसमीपे स आदाय श्रावकव्रतम् ॥१४२ तत्प्रस्तावे मनुष्यस्य गन्धमाघ्राय दुष्टधीः । व्याघ्रस्तत्रागतः शीघ्रं भक्षणार्थं च सन्मुनेः ॥१४३ शूकरस्तं समालोक्य गत्वा तूर्णं स सन्मुखम् । गुहाद्वारे स्थितस्तत्र तयो रक्षादिहेतवे ॥१४४ तौ तत्रापि महायुद्धं कृत्वा कोपात्परस्परम् । मृतौ घातप्रहारेण वेदनान्वितविग्रहौ ॥ १४५ शूकरो मुनिरक्षाभिप्रायेणैव महद्धकः । सौधर्मे हि सुरो जातो यः पूर्व देवलाभिधः ॥ १४६ मुनेर्भक्षणध्यानेन गतो व्याघ्रोऽपि पापतः । तीव्रं घोरतरं श्वभ्रं महादुःखाकरं भुवि ॥ १४७ इति व्रतगुणयुक्तः सारसौषमंकल्पे घृतमुनिवरपादौ मानसे स्वस्य जातः । सुकृतविमलयोगाच्छूकरो निर्जरोऽत्र विपुलसुखसमुद्रः सन्मुने रक्षणाच्च ॥ १४८ बुद्धिको धारण करनेवाले वे मुनिराज शीत और डास मच्छरोंकी महाबाधाको सहन करते हुए किसी वृक्षके नीचे ध्यान लगाकर विराजमान हो गये ॥ १३६ ॥ | सवेरा होते ही देवल और धर्मल दोनों ही क्रोधपूर्वक लढ़ने लगे और दोनों ही एक दूसरेकी चोटसे मर गये ||१३७|| वे दोनों एक दूसरेपर द्वेष करते हुए आतंध्यानसे मरे थे इसलिये वे दोनों बड़े क्रोधी और क्रूर सूकर और बाघ हुए ( देवलका जीव सूकर हुआ था और धर्मलका जीव बाघ हुआ था ) || १३८|| जिस गुफामें सूकर रहता था उसमें किसी एक दिन समाधिगुप्त और त्रिगुप्त नामके मुनिराज आ विराजमान हुए ॥१३९॥ उन्हें देखते ही उस सूकरको पुण्यकर्मके उदयसे जाति स्मरण हो गया । उसने उन मुनिराजके चरणकमलोंको नमस्कार किया और शान्त होकर बैठ गया || १४०|| मुनिराजने स्वयं कृपाकर उसके सामने स्वर्ग मोक्ष देनेवाला, सारभूत और श्रावकोंके व्रतोंको सूचित करनेवाले धर्मका स्वरूप कहा ।। १४१ ॥ सुख देनेवाले धर्मका स्वरूप सुनकर उसने अत्यन्त कठिनतासे त्याग करने योग्य पापोंका भी त्याग कर दिया और श्रावकके व्रतोंको धारण कर मुनिराजके समीप ही बैठ गया || १४२|| ठीक इसी समय वह दुष्ट बाघ मनुष्यकी गन्ध सूंघकर उन मुनिराजको भक्षण करनेके लिये शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचा || १४३ ।। सूकर उस बाघको देखकर शीघ्र हो उसके सामने गया, और उन मुनिराजकी रक्षा करनेके लिये उस गुफाके दरवाजेपर जा बैठा || १४४ || बाघ आया ही था कि दोनोंका युद्ध होने लगा और दोनों बड़े क्रोधसे युद्ध करने लगे । दोनों एक दूसरे पर चोट करने लगे और उस चोटसे दोनों मर गये || १४५|| देवलका जीव जो सूकर था वह मुनिराजकी रक्षाके लिये लड़ा तथा मरा था इसलिये वह सोधमं स्वर्गमें जाकर बड़ी ऋद्धिका धारक देव हुआ || १४६॥ वाघ मुनिराजको भक्षण करनेके अभिप्राय से लड़ा और मरा था इसलिये वह पापकर्मके उदयसे अत्यन्त दुःख देनेवाले महा घोर और तीव्र नरकमें जाकर पड़ा था ॥ १४७॥ इस प्रकार मुनिकी रक्षा करनेके अभिप्रायसे केवल वसतिका दान देने रूप व्रतको पालन करनेके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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