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प्रश्नोत्तरत्रावकाचार
३९९ वितनुते वरनरो जिनपूजां प्राप्य ऋद्धिमपि त्रिलोकसंस्थिताम् । शिवपदं स प्रयाति सुखाकरं निजसमजितकर्मक्षयाद्ध वम् ।।१९५ पूजां श्वभ्रगृहार्गलां गुणाकरां सोपानमालां घनां स्वर्गस्यैव सुखादिखानिममलां दुःखार्णवोत्तारिकाम् । तीर्थेशस्य कुपापकक्षवहने ज्वालोपमा धर्मदा
सत्तीर्थङ्करकर्मदां बुधजना नित्यं कुरुध्वं भुवि ॥१९६ इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते प्रश्नोत्तरोपासकाचारे श्रीषेणवृषभसेनाकौण्डेशशूकरमेक
कथाप्ररूपको नामैकविंशतितमः परिच्छेदः ॥२१॥
॥१९४|| जो मनुष्य भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा करता है वह तीनों लोकोंमें उत्पन्न होनेवाली समस्त ऋद्धियोंको पाकर तथा अन्तमें समस्त कर्मोको नष्ट कर देनेके कारण सुखकी खानि ऐसे मोक्षमें अवश्य ही विराजमान होता है ॥१९५।। यह भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा नरकरूपी घरको बन्द करनेके लिये अर्गला है, गुणोंकी खानि है, स्वर्गमें चढ़नेके लिये सीढ़ी है, अपरिमित सुखको खानि है, अत्यन्त निर्मल है, दुःखरूपी महासागरसे पार कर देनवाली है, अशुभ वा पापरूपी ईंधनको जलानेके लिये अग्निके समान है, धर्मको देनवाली है और श्री तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध करनेवाली है इसलिये हे बुद्धिमानो ! इस संसारमें भगवान् तीर्थंकर परमदेवकी पूजा प्रतिदिन करो ॥१९६॥ इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकोति विरचित प्रश्नोत्तरोपासकाचारमें चारों दानोंमें प्रसिद्ध होनेवाले
श्रीषेण, वृषभसेना, कौंडेश और शूकरकी कथाको तथा भगवान्को पूजामें प्रसिद्ध होनेवाले मेंढककी कथाको कहनेवाला यह इक्कीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥२१॥
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