Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 431
________________ १९८ श्रावकाचार-संग्रह दापयित्वा त्वमानन्दभेरोमत्रागतोऽसि भो । राजन् ! श्रीवर्द्धमानस्य वन्दनार्थं स्वभक्तितः ॥१८२ तदागत्य महा भव्याः श्रेष्ठिनी सह बान्धवैः । आगता जिनपूजार्थ सारे वैभारपर्वते ।।१८३ भेकोऽपि निजवाप्या हि नोत्वा सत्कमलं पथि । निर्गतस्तीर्थनाथस्य पूजार्थं भक्तितत्परः ॥ १८४ मार्गे सम्माजिते गच्छन् यावत्पादेन हस्तिना । चूर्णयित्वा जिना घोशपूजाभावान्विताशयः ॥ १८५ सोऽनुपूजा विसद्भाव जातपुण्यप्रभावतः । देवो महद्धिको जातः सौधर्मे सौख्यसागरे ॥ १८६ अन्तर्मुहूर्त मध्येऽभूद्यो वनान्वितविग्रहः । दिव्याम्बरधरो धीर आभरणादिविभूषितः ॥ १८७ पूर्वं भवं परिज्ञायावधिज्ञानेन सोऽमरः । आगतो जिनपूजार्थं महापूजोपलक्षितः ॥१८८ शुभाः श्रेणिक ! स्वर्गेऽस्य देवस्यातिविभूतयः । जाता बहुतरा• भोग्याः पूजाभावेन केवलम् ॥१८९ बहो पूजाफलं नृणां महाश्रीसुखसाधनम्। इहामुत्र भवेन्नूनं सर्वानिष्टविनाशनम् ॥ १९० इति सञ्जित्य सञ्जाताः पूजाभावान्वितो नृपः । पादपद्मे जिनेन्द्रस्य प्रत्यहं स सुखाकरे ॥ १९१ तकस्य कथां श्रुत्वा भव्याः - पूजान्विताशयाः । सन्त्रस्ताः पापतो जाताः संवेगादिरताश्च ते ॥ १९२ ततो नत्या गणाधीशं गौतमं च जगद्गुरुम् । जगाम स्वगृहं राजा परमानन्दनिर्भरः ॥१९३ इति जिनेश्व रयज्ञसुभावतः, सकलसौख्यगृहे- त्रिदशालये । भो ! महद्धकसुरोऽजनि शुद्धषीः विमलपुण्यवशादपि भेककः ॥१९४ 1 रक्खा || १८१ || हे राजन् ! श्री महावीरस्वामीके यहाँ पधारने पर तू आनन्दमेरी दिलाकर भक्तिपूर्वक भगवान्‌की वन्दना करनेके लिये आया || १८२|| तब वह भवदत्ता सेठानी भी बड़ी भक्ति से अपने भाई कुटुम्बियोंके साथ वैभार पर्वतपर भगवान् वर्द्धमानस्वामीकी पूजा करनेके लिये आई ॥१८३॥ यह देखकर वह मेढक भी भक्तिमें तल्लीन होकर अपनी बावड़ीमेंसे एक कमलका दल लेकर भगवान्की पूजा करनेके लिये निकला ॥ १८४॥ | वह मार्ग में आ रहा था और उधर हाथी आ रहा था इसलिये वह मेंढक मार्ग में ही हाथीके पैरसे दबकर चूरचूर हो गया, परन्तु उसके हृदयमें भगवान्‌की पूजा करनेके भाव बने ही रहे ।। १८५ ।। भगवान्की पूजा करनेके परिणाम बने रहने के कारण उसके पुण्य प्रभावके कारण यह सुखके सागर ऐसे सौधर्म स्वर्ग में बड़ी ऋद्धिको धारण करनेवाला देव हुआ है || १८६|| उत्पन्न होने के समय से अन्तर्मुहूर्त में ही यह युवा हो गया था और धीरवीर दिव्य वस्त्रोंको धारण करनेवाला तथा अनेक आभूषणोंसे सुशोभित हो गया था ||१८७|| यह देव अपने अवधिज्ञानसे पहिले भवकी सब बात जानकर अपनी बड़ी भारी विभूतिके साथ भगवान् महावीरस्वामीकी पूजा करनेके लिये आया है || १८८|| हे श्रेणिक ! केवल भगवान्को पूजाके परिणाम होनेके कारण इस देवको स्वर्ग में बहुतसी विभूतियाँ और बहुतसे भोग प्राप्त हुए हैं ॥१८९|| देखो, भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा का फल मनुष्यों को महा लक्ष्मी और सुखका कारण है तथा इसलोक परलोक दोनों लोकोंके सब अनिष्ट दूर करनेवाला है ।।१९०|| यही विचारकर राजा श्रेणिकके अत्यन्त सुख देनेवाले भगवान् जिनेन्द्रदेव के चरणकमलोंकी प्रतिदिन पूजा करने के भाव उत्पन्न हो गये || १९१ ॥ मेंढककी इस कथाको सुनकर कितने ही भव्य जीव पापोंसे डरकर और संवेग वेराग्यमें तल्लीन होकर प्रतिदिन भगवान् की पूजा करनेके भाव करने लगे ॥ १९२॥ तदनन्तर राजा श्रेणिक परम आनन्दित होकर और जगद्गुरु भगवान् महावीरस्वामोको तथा गौतम गणधरको नमस्कार कर अपने घर जा पहुँचा ॥१९३॥ देखो, शुद्ध बुद्धिको धारण करनेवाला मेंढक केवल भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेके भाव उत्पन्न करनेके कारण प्राप्त हुए निर्मल पुण्यके प्रताप से समस्त सुखोंके घर ऐसे स्वर्ग में बड़ी ऋद्धिको धारण करनेवाला देव हुआ था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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