Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 411
________________ ३७८ श्रावकाचार-संग्रह धन्यास्ते ये नरा बिम्बं पूजयन्ति स्तुवन्ति च । कारापयन्ति धर्माय जिनस्य भुवनत्रये ॥१८६ चतुर्विशतिका सारां प्रतिमां यः करोति ना । नाकराज्यं नृराज्यं च प्राप्य मोक्षं बजेदनु ॥१८७ हेमरूपादिजां सारां रत्नाश्माविमयामपि । विधत्ते यो जिनेन्द्रस्य तस्य श्रीधर्मसौख्यदा ॥१८८ न प्रतिष्ठासमो धर्मो विद्यते गृहिणां क्वचित् । बहुभव्योपकारत्वाद् धर्मसागरवर्द्धनात् ॥१८९ यः प्रतिष्ठां विधत्ते ना शक्रत्वं चक्रवर्तिताम् । प्राप्य मुक्ति प्रयात्येव स धर्मोदयकारणात् ॥१९० ये कुर्वन्ति बुधाः सारां प्रतिष्ठां श्रीजिनेशिनाम् । तीर्थराज्यपदं लब्ध्वा मुक्तिकान्तां भजन्ति ते ॥ यावन्ति जिनबिम्बानि पूजां नित्यं धयन्ति वै। प्रतिष्ठायां च तत्कर्ता तद्धर्मा सम्भजेत् सदा ॥१९२ प्रतिष्ठा ये प्रकुर्वन्ति ते पूज्या नृसुरासुरैः । स्तुत्या वन्द्या इहामुत्र भजन्ति सुखसागरम् ॥१९३ किमत्र बहुनोक्तेन यः प्रतिष्ठां करोति ना। तस्यैव सफलं जन्म सा धर्मार्थसुखप्रदा ॥१९४ कर्तव्या जिनसत्पूजा गृहस्थैर्भुक्तिमुक्तिदा । भक्त्या शक्त्याऽनुसारेण प्रत्यहं स जलादिभिः ॥१९५ जिनाङ्ग स्वच्छनोरेण क्षालयन्ति स्वभावतः । येऽतिपापमलं तेषां क्षयं गच्छति धर्मतः ॥१९६ अर्चयन्ति जिनेन्द्रं ये नित्यं कर्पूरकुङ्कमैः । मित्रैः सच्चन्दनः स्वर्गे सुगन्ध्यङ्गं भजन्ति ते ॥१९७ वाला है ॥१८५॥ वे लोग तीनों लोकोंमें धन्य हैं जो केवल धर्म पालन करनेके लिये भगवान्की पूजा करते हैं, उनकी स्तुति करते हैं और जिनभवन अथवा जिनबिम्बोंका निर्माण कराते हैं ॥१८६।। जो भव्य पुरुष चौबीस तीर्थकरोंकी उत्तम प्रतिमाओंका निर्माण कराता है वह स्वर्गके राज्यको व मनुष्य लोकके राज्यको पाकर अन्तमें मोक्षका साम्राज्य प्राप्त कर लेता है ॥१८७॥ जो भव्य पुरुष सुवर्णकी, चाँदीकी, रत्नोंकी अथवा पाषाण आदिकी उत्तम जिनप्रतिमा बनवाता है उसके धर्म और सुख देनेवाली लक्ष्मी प्राप्त होती है ॥१८८॥ गहस्थोंको बिम्बप्रतिष्ठाके समान और कोई धर्म नहीं है, क्योंकि बिम्बप्रतिष्ठामें अनेक भव्य जीवोंका उपकार होता है और धर्मरूपी महासागरकी वृद्धि होती है ॥१८९॥ जो भव्य जीव बिम्बप्रतिष्ठा कराता है वह श्रेष्ठ धर्मको वृद्धिका कारण होता है इसलिये वह इन्द्र और चक्रवर्तीके सुख भोगकर अन्तमें मोक्षरूप महा ऋद्धिको प्राप्त करता है ।।१९०।। जो बुद्धिमान् श्री जिनेन्द्रदेवकी उत्तम प्रतिष्ठा करते हैं वे तीर्थकरका परम पद पाकर मुक्तिरूपी ललनाका सेवन करते हैं ॥१९१॥ प्रतिष्ठामें जितनी प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा होती है और उनकी जबतक नित्य पूजा आदि होती रहती है' तबतक उसके कर्ताओंको धर्मको प्राप्ति होती रहती है ।।१९२॥ जो भव्य जीव प्रतिष्ठा कराते हैं वे देव विद्याधर सबके द्वारा पूज्य होते हैं, स्तुति और वन्दना करने योग्य होते हैं और इस लोक तथा परलोक दोनों लोकोंमें महासागरके समान महा सुखको प्राप्त होते हैं ॥१९३।। बहुत कहनेसे क्या जो मनुष्य प्रतिष्ठा कराता है, संसारमें उसीका जन्म सफल है क्योंकि वह प्रतिष्ठा धर्म, अर्थ और सुख देनेवाली है ॥१९४।। गृहस्थोंको भक्तिपूर्वक अपनी शक्तिके अनुसार प्रतिदिन जल चन्दनादिक से भुक्ति मुक्ति देनेवाली भगवान् जिनेन्द्रदेवको उत्तम पूजा करनी चाहिये ॥१९५।। जो स्वभावसे ही स्वच्छ जलसे भगवान् जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाका अभिषेक करते हैं उस धर्मके प्रभावसे उनका समस्त पापरूपी कर्म नष्ट हो जाता है ॥१९६।। जो प्रतिदिन कपूर और कुंकुमसे मिले हुए चन्दनसे भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा करते हैं वे उसके प्रभावसे स्वर्गमें अत्यन्त सुगन्धित शरीर १. यह ऐसा कथन उपचारसे है वास्तवमें इतना पुष्य उसी समय हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534