Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 413
________________ ३८. श्रावकाचार-संग्रह जिनाधीशस्य सत्पूजां वारकं यः करोति सः । सुखं संसारज लब्ध्वा मुक्तिस्त्री च वशं नयेत् ॥२११ पूजा कल्पद्रुमः पूजा कामधेनुश्च स्यान्नृणाम् । निधिश्चिन्तामणिः पूजा समोहितफलप्रदा ॥२१२ पूजयन्ति जिनेन्द्रान्न पूजया ये शठाः नराः । हस्तौ व्यर्थी वृथा जन्म तेषां चात्र गृहाश्रमः ॥२१३ इति मत्वा बुनित्यं सुकर्तव्या श्रीजिनेशिनाम् । पूजा द्रव्यानुसारेण चेहामुत्र हितप्रदा ॥२१४ जिनानां पूजया रोगा नश्यन्ति बहुदुःखदा । दुःसहा ज्वरसम्पित्तवातकुष्ठादयोऽङ्गिनाम् ॥२१५ शाकिनी ग्रहदुष्टारिचौरक्षोभनृपाविजाः। उपद्रवाः क्षयं यान्ति पुंसां श्रीजिनपूजनात् ॥२१६ वघबन्धाद्भवं दुःखं शृङ्खलाहिविषादिजम् । नश्यत्येव नृणां लोके श्रीतीर्थेश्वरपूजया ॥२१७ जिनपूजायुतं दक्षं लक्ष्मीः संवरते स्वयम् । भुवनत्रये च सञ्जाता स्वयंवरवधूरिव ॥२१८ ये जिनार्चा विधायोच्चामं गछन्ति भावतः । द्रव्यायं जायते लाभस्तेषां बहुरदायकः ॥२१९ निर्विघ्नेन भवन्त्येव मङ्गलानि गहेशिनाम् । विवाहादिस्वभावानि सर्वाणि जिनपूजया ॥२२० तस्मात्पूर्व गृहस्थश्च कार्या पूजा जिनेशिनाम् । मङ्गलादिककार्यादौ निर्विघ्नाथं शुभाय च ॥२२१ इहामुत्र हितार्थाय कर्तव्या गृहनायकैः । सदा पूजा जिनेन्द्राणां सर्वाभ्युदयसाधिनी ॥२२२ सदृष्टयः प्रकुर्वन्ति चाभिषेकं जिनस्य ये। जन्मस्नानं च ते प्राप्य मेरौ यान्ति शिवालयम् ॥२२३ घण्टां श्रीजिनदेवस्य ये दधुः पुण्यहेतवे । घण्टादिसहितं यानमारूढा हि व्रजन्ति ते ॥२२४ लेता है वह समस्त सुखोंको पाकर मुक्तिस्त्रीको वश कर लेता है ॥२११॥ यह भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा मनुष्योंको इच्छानुसार फल देनेवाले कल्पवृक्षके समान है, कामधेनुके समान है, निधिके समान है अथवा चिन्तामणि रत्नके समान है ।।२१२॥ जो मूर्ख मनुष्य अष्टद्रव्यसे भगवान् जिनेन्द्र. देवकी पूजा नहीं करते उनके हाथ व्यर्थ हैं, उनका जन्म व्यर्थ है और इस लोकमें उनका गृहस्थाश्रम व्यर्थ है ॥२१३।। यही समझकर विद्वानोंको अपने द्रव्यके अनुसार इस लोक व परलोकमें हित करनेवाली भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा नित्य और अवश्य करनी चाहिये ॥२१४॥ भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेसे जीवोंके असह्य, वात, कोढ आदि घोर दुःख देनेवाले रोग सब नष्ट हो जाते हैं ॥२१५॥ भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेसे मनुष्योंके शाकिनी, डाकिनी, भूत, पिशाच, दुष्ट, शत्रु, चोर, कोतवाल, राजा आदिसे उत्पन्न हुए समस्त उपद्रव नष्ट हो जाते हैं ॥२१६।। भगवान् तीर्थंकर परमदेवकी पूजा करनेसे वध बन्धनसे होनेवाले दुःख तथा सांकल, सर्प, विष आदिसे उत्पन्न होनेवाले संसारी मनुष्योंके दुःख सब नष्ट हो जाते हैं ॥२१७|| भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेवाले चतुर पुरुषको स्वयंवरमें आयी हुई कन्याके समान तीनों लोकोंमें रहनेवाली लक्ष्मी अपने आप आकर स्वीकार कर लेती है ॥२१८॥ जो भावपूर्वक भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा करके द्रव्य कमानेके लिये दूसरे गाँवोंको जाते हैं उनको बहुतसी लक्ष्मी देनेवाला भारी लाभ होता है ॥२१९॥ भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेसे गृहस्थोंके विवाह आदि समस्त मंगलकार्य निर्विघ्नतापूर्वक समाप्त हो जाते हैं ॥२२०।। इसलिये गृहस्थ लोगोंको निर्विघ्नतापूर्वक कार्यको समाप्तिके लिये अथवा पुण्योपार्जन करनेके लिये भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनी चाहिये ॥२२१॥ इस लोक तथा परलोक दोनों लोकोंका हित करनेके लिये समस्त कल्याणोंको करनेवाली भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा सदा करते रहना चाहिये ॥२२२।। जो सम्यग्दृष्टि पुरुष भगवान् जिनेन्द्रदेवका अभिषेक करते हैं वे मेरु पर्वतपर जन्माभिषेक पाकर मोक्षमें जा विराजमान होते हैं अर्थात् वे तीर्थकर होते हैं, इसलिये मेरुपर्वतपर उनका जन्माभिषेक किया जाता है और अन्तमें वे मोक्ष जाते हैं ॥२२३।। जो मनुष्य पुण्य उपार्जन करनेके लिये श्री जिनेन्द्रदेवको (उनके भवनमें) घण्टा समर्पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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