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प्रश्नोत्तरत्रावकाचार सुपात्राय कुपात्राय वापात्राय बुधोत्तमैः । कुदानं नैव दातव्यं यतः स्यात्स्वान्ययोरघम् ॥१४७ भगवन् ! कि कुदानं तद्यतः सञ्जायतेऽशुभम् । प्रवक्ष्येऽहं कुदानं च दशभेदं कुदुःखदम् ॥१४८ गोकन्याहेमहस्त्यश्वगेहक्ष्मातिलस्यन्दिनः । दासी चेति कुदानानि प्रणीतानि शठभुवि ॥१४९ गोदानं योऽति मूढात्मा दत्ते पुण्यादिहेतवे । वघबन्धाङ्गिघातादिजातं पापं लभेत सः ॥१५० कन्यादानं प्रदत्ते यः पुण्याय दुरितार्णवम् । गेहमैथुनहिंसादिजातं पापं च तस्य हि ॥१५१ सुवर्ण यः प्रदत्ते ना शुभाय पापकारणम् । हिंसामोहादिजं पापं तस्य जायेत दुस्तरम् ॥१५२ . हस्त्यश्वरथसहासीभूमिगेहतिलादिकम् । यो दत्ते मूढधोर्जीवघातात्पापं परं श्रयेत् ॥१५३ द्रव्यदानं न दातव्यं सुपुण्याय नरैः क्वचित् । महामोहकरं ज्ञानवृत्तादिगुणघातकम् ॥१५४ द्रव्यदानं प्रदत्ते यो हिसामोहादिवर्द्धनम् । पापारम्भस्य मूलं सः श्रयेदुरितमुल्वणम् ॥१५५ महापात्रं प्रणस्येच्च मोहः क्रोधो भयस्तथा । लोभः शोको महाचिन्ता ध्यानाध्ययनविच्युतिः ॥१५६ जीवघातो वचो दुष्टं द्वषो रागोऽपि देहिनाम् । लोकनिन्दादिकं पापमब्रह्म च मनोऽशुभम् ॥१५७ आर्तरौद्रद्वयं ध्यानं विघ्नं च धर्मशुक्लयोः । मदश्चेन्द्रियव्यापारो गुणहानिर्वतच्युतिः ॥१५८ दोषो रत्नत्रयाणां च येन सञ्जायतेतराम् । तद्दानं नैव दातव्यं प्राणान्तेऽपि वुधोत्तमैः १५९ भोगभूमि और स्वर्गादिके अनेक फलोंको फलता है ॥१४६।। दान चाहे सुपात्रको दिया जाय, चाहे कुपात्रको दिया जाय, चाहे अपात्रको दिया जाय परन्तु उत्तम विद्वानोंको कुदान कभी नहीं देना चाहिये, क्योंकि कुदान देनेसे अपनेको भी पाप लगता है और दूसरेको भी (लेनेवालेको भी) पाप लगता है ॥१४७॥
प्रश्न-हे भगवन् ! जिनसे पाप उत्पन्न होता है ऐसे कुदान कितने हैं और कौन-कौन हैं ? उत्तर-हे वत्स, मैं उन दुःख देनेवाले कुदानोंके दस भेद कहता हूँ, तू सुन ॥१४८॥ गौ, कन्या, सुवर्ण, घोड़ा, घर, पृथ्वी, तिल, रथ और दासी आदिका दान करना कुदान कहलाते हैं। संसारमें इन कुदानोंको अज्ञानी ही किया करते हैं ॥१४९।। जो अत्यन्त अज्ञानी पुरुष पुण्य सम्पादन करनेके लिये गायका दान देता है वह बन्धन घात आदिसे उत्पन्न हुए अनेक पापोंको उत्पन्न करता है ॥१५०॥ इसी प्रकार जो पुरुष पुण्य बढ़ानेके लिये पापोंका महासागररूप कन्यादान करता है वह घर, मैथुन, हिंसा आदिसे उत्पन्न हुए समस्त पापोंको प्राप्त होता है ॥१५१।। जो मनुष्य शुभ कर्मोंके लिये अनेक पापोंको उत्पन्न करनेवाले सुवर्णका दान देते हैं वे हिंसा, मोह आदिसे उत्पन्न हुए अत्यन्त भारी पापोंको उत्पन्न करते हैं ॥१५२॥ जो अज्ञानी हाथी, घोड़े, रथ, दासी, पृथ्वी, घर, तिल आदिकोंका दान करता है वह अनेक जीवोंके घातका कारण होनेसे महा पापकर्मोंको उपार्जन करता है ॥१५३॥ मनुष्योंको पुण्य उपार्जन करनेके लिये धनका दान तो कभी देना ही नहीं चाहिये, क्योंकि धनका दान देना महा मोहको उत्पन्न करनेवाला है और ज्ञान चारित्र आदि गुणोंको घात करनेवाला है ॥१५४॥ जो मनुष्य हिंसा मोह आदिको बढ़ानेवाले धनका दान करता है वह पाप और आरम्भोंका मूल कारण ऐसे भारी पापोंको इकट्ठा करता है ॥१५५।। जिस दानसे महापात्रता नष्ट हो जाय, मोह, क्रोध, भय, लोभ, शोक, चिन्ता आदि उत्पन्न हो जाय, जीवोंका घात हो, वचन दुष्ट वा कठोर कहने पड़ें, मनुष्योंको राग वा द्वेष उत्पन्न हो जाय, लोक निन्दा हो वा और भी अनेक प्रकारके पाप हों, ब्रह्मचर्यका घात हो, मन मलिन हो जाय, आर्तध्यान रौद्रध्यानकी प्रवृत्ति हो जाय, धर्मध्यान और शुक्लध्यानमें विघ्न हो जाय, मद उत्पन्न हो जाय, इन्द्रियां अपने व्यापारमें लग जाय, गुण नष्ट हो जाय, व्रत छूट जाय और रत्नत्रयमें दोष लग जाय
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