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श्रावकाचार-संग्रह अश्मपोताधिरूढो ना यथा मज्जति सागरे । अपात्रपोषकस्तद्वत् संसाराब्धौ प्रमज्जति ॥१३५ अपात्राय प्रदत्ते यो दानं धर्माय मूढधीः । तद्दानजेन पापेन श्वभ्रादिकुति व्रजेत् ॥१३६ यथाऽपात्रो भ्रमत्येव संसारे पापयोगतः । तद्दातापि तथा पापाच्चतुर्गतिषु प्रत्यहम् ॥१३७ अपात्रदानयोगेन यच्च पापं करोत्यधीः । मैथुनादिभवं दाता श्रयेत्तस्यात्रमेव हि ॥१३८ अन्धकूपे वरं क्षिप्तं धनं नि शहेतवे । नैव दानमपात्राय यतो दुर्गतिदायकम् ॥१३९ पोषितो हि यथा व्याघ्रः बलादत्ति स्वस्वामिनम् । तथाऽपात्रोऽपि दातणां श्वनं नयति शीघ्रतः ॥ यथा मेघजलं भूमियोगानिम्बेक्षुतां व्रजेत् । सुपात्रापात्रयोर्दानं तथा च पुण्यपापदम् ॥१४१ स्वातिनक्षत्र बिंदु शुक्तिकायां च मौक्तिकम् । विषं सर्पमुखे तद्वद्दानं पात्रादिकं भवेत् ॥१४२ यथाहिः पोषितो दत्ते विषं क्षीरं च गौ च नुः । तथाऽपात्रो महत्पापं पुण्यं सत्पात्र एव च ॥१४३ यथा कल्पद्रुमो दत्ते भोगं धत्तूरको विषम् । तथा स्वर्ग सुपात्रो वै कुपात्रः श्वभ्रमेव च ॥१४४ तणानत्ति यथा गौश्च दत्ते दुग्धामृतं नृणाम् । तथा च यमिनः स्तोकं भुक्तं स्वर्गामृतं धनम् ॥१४५ वटबीजं यथा स्तोकं चोप्तं भूरिगुणं भवेत् । सुक्षेत्रे च महापात्रदानं भोगवरादिषु ॥१४६ दिया हुआ दान केवल पाप ही उत्पन्न करता है ॥१३४।। जिस प्रकार पत्थरकी नावपर बैठा हुआ मनुष्य समुद्रमें डूबता ही है उसी प्रकार अपात्रको पालन पोषण करनेवाला मनुष्य भी संसाररूपी सागरमें डूब ही जाता है ।।१३५॥ जो मूर्ख धर्म पालन करनेके लिये अपात्रोंको दान देता है वह उस अपात्रदानसे उत्पन्न हुए पापसे नरकादिक दुर्गतियोंमें जा पहुंचता है ॥१३६।। जिस प्रकार अपात्र पापोंके संयोगसे संसारमें परिभ्रमण करता है उसी प्रकार दाता भी पाप कर्मोंके संयोगसे प्रतिदिन चारों गतियोंमें ही परिभ्रमण करता रहता है ।।१३७।। मूर्ख लोग अपात्रदानसे जो पाप उत्पन्न करते हैं वैसे पाप कुशील सेवन आदि अन्य पापोंसे भी नहीं होते ॥१३८। धनको नाश करनेके लिये अन्वे कुंएमें डाल देना अच्छा, परन्तु अपात्रको देना अच्छा नहीं, क्योंकि अपात्रको देनेसे धन भी नष्ट होता है और नरकादिक दुर्गतियां भी प्राप्त होती हैं ॥१३९|| जिस प्रकार पाला हुआ बाघ छलसे अपने स्वामीको खा ही जाता है उसी प्रकार अपात्र भी अपने दाताओंको शीघ्र ही नरकमें पहुँचा देता है ।।१४०।। जिस प्रकार बादलोंसे वर्षा हुआ पानी भूमिके सम्बन्धसे नीम और ईखरूप (नीममें पड़कर कड़वा और ईखमें पड़कर मीठा) हो जाता है उसी प्रकार सुपात्र और अपात्रको दिया हुआ दान भी पुण्य पापरूप हो जाता है अर्थात् सुपात्रको दिया हुआ दान पुण्यरूप हो जाता है और अपात्रोंको दिया हुआ दान पापरूप हो जाता है ॥१४१।। जिस प्रकार स्वाति नक्षत्रमें पड़ी हुई पानीकी बूंद (वर्षाकी बूंद) सीपमें जाकर मोती हो जाती है और सर्पके मुंहमें जाकर विष हो जाती है उसी प्रकार सुपात्रोंको दान देनेसे पुण्य होता है व अपात्रोंको देनेसे पाप होता है ।।१४२।। जिस प्रकार पाला हुआ सर्प विष ही देता है और पाली हुई गाय दूध ही देती है उसी प्रकार अपात्रोंको दिया हुआ दान महा पाप उत्पन्न करता है और सुपात्रको दिया हुआ दान महा पुण्य उत्पन्न करता है ॥१४३।। जिस प्रकार कल्पवृक्षोंसे भोगोपभोगोंकी ही प्राप्ति होती है और धतूरेसे विषकी ही प्राप्ति होती है उसी प्रकार सुपात्रोंको दान देनेसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है और कुपात्रोंको देनेसे नरककी ही प्राप्ति होती है ॥१४४। जिस प्रकार गाय तृणोंको खाती है और दूधरूपी अमृतको देती है उसी प्रकार मुनिराज थोडासा आहार लेते हैं, परन्तु उसीसे मनुष्योंको स्वर्गरूपी बहुतसे अमृतकी प्राप्ति हो जाती है ॥१४५।। जिस प्रकार अच्छे स्थानपर बोया हुआ वटका बीज बहुतसी छाया और फलोंसे फलता है उसी प्रकार सुपात्रोंको दिया हुआ दान भी
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