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श्राविकाचार-संग्रह
मधु पापाकरं नैव गृहीतव्यं विवेकिभिः । जोर्वाहसादिसञ्जातं बहुसत्वसमाकुलम् ॥४३ शृङ्गवेरादिकाः कन्दाः सत्त्वानन्तसमुद्भवाः । महापापप्रदाः दक्षैः स्वीकर्तव्या धनाय न ॥४३ तिलानीत्वा न दातव्या कीटाढ्या धनहेतवे । तेषां तैलं न कार्यं च नरैर्जीवविनाशकम् ॥४४ वापीकूपतडागादि न कर्तव्यमघप्रदम् । पञ्चेन्द्रियादिजन्तूनां घातकं कीर्तिसिद्धये ॥४५ छेदं कार्यं न वृक्षाणां गृहस्थैगृ हहेतवे । असंख्यैनः प्रदं दुःखधाम सत्त्ववधाकरम् ॥४६ इष्टादिकं विधेयं न मनुष्यैर्धामसिद्धये । स्थावरत्रससर्वासु क्षयदं दुरितार्णवम् ॥४७ द्रव्याय शकटं नीत्वा न गन्तव्यं नरोत्तमैः । ग्रामादौ हि चतुर्मासे महोसत्त्वाकुले क्वचित् ॥४८ नवनीतादनल्पाल्पाहः स्थितात्त्रससंभृतात् । काराप्यं न घृतं दक्षैः परगेहेऽशुभप्रदम् ॥४९ त्रसाढ्यं गुडपुष्पं च लाक्षामैणादिकं तथा । वस्त्रादिशोधनं वस्तु द्विपदं च चतुष्पदम् ॥५० कटादिसम्भृतं यच्च पापाढ्यं हि क्रयाणकम् । जोर्वाहसाकरं लोके निन्द्यं च साधुदूषितम् ॥५१ तत्सर्वं द्रव्यलोभाय न नेतव्यं विवेकिभिः । न दातव्यं परेषां चाहिंसादिव्रतशुद्धये ॥५२ लक्ष्मीगृहात्स्वयं याति कुकयाणकसंग्रहात् । लोभातुरस्य पापेन दारिद्र्यं सन्मुखायते ॥५३ उत्तमाचरणात्सछ्रीश्चायाति पुण्यतो नृणाम् । ग्यायमार्गरतानां हि लोभादित्यक्तचेतसाम् ॥५४
आदि बन सकते हैं ||४१ ॥ विवेकी पुरुषोंको पाप उत्पन्न करनेवाला मधु वा शहद नहीं लेना चाहिये क्योंकि वह अनेक जीवोंकी हिंसासे उत्पन्न होता है और अनेक जीवोंसे भरा रहता है ॥४२॥ अदरख आदि कन्दमूल भी अनेक जीव उत्पन्न करनेवाले महा पाप प्रकट करनेवाले हैं इसलिये इनका व्यवसाय कर धन कमाना भी उचित नहीं है ||४३|| तिल आदि ऐसे धान्य जो कि कीड़ोंके घर हैं नहीं भरने चाहिये और न ऐसे धान्योंका तेल निकलवाना चाहिये, क्योंकि ऐसे धान्योंका तेल निकलवानेसे अनेक जीवोंका विनाश होता है || ४४ || अपनी कीर्ति बढ़ाने के लिये भी बावड़ी कुआ तालाब आदि भी नहीं बनवाना चाहिये, क्योंकि इन सबका बनवाना पाप उत्पन्न करनेवाला और अनेक पंचेन्द्रिय जीवोंका घात करनेवाला है || ४५ ॥ गृहस्थोंको अपने घरके कामों के लिये भी वृक्षोंको नहीं कटवाना चाहिये। क्योंकि वृक्षोंका कटवाना अनेक पापोंका उत्पन्न करनेवाला, दुःखोंका घर और अनेक जीवोंका नाश करनेवाला है ||४६ || अपना घर बनवानेके लिये भी गृहस्थोंको ईंटे नहीं पकवाना वा बनवाना चाहिये । क्योंकि ईटोंका बनवाना वा पकवाना त्रस स्थावर सब जीवोंकी हिंसा करनेवाला और पापोंका सागर है ||४७|| उत्तम पुरुषोंको बरसात के दिनोंमें द्रव्य कमाने के लिये गाड़ी लेकर नहीं जाना चाहिये, क्योंकि बरसात में गाड़ी ले जाने से अनेक जीवोंकी हिंसा होती है ॥४८॥ बहुत दिनके रक्खे हुए मक्खनमें अनेक त्रस जीव भरे रहते हैं । इसलिये चतुर पुरुषोंको उसका घी नहीं बनवाना चाहिये, क्योंकि यह कार्य भी परलोकमें पाप उत्पन्न करनेवाला है ||४९ || इसी प्रकार अनेक त्रस जीवोंकी हिंसा करनेवाले गुड़, पुष्प, लाख, मृगचर्म, वस्त्र धोनेकी सामग्री, कीड़ोंसे भरे हुए पशु सेवक आदि तथा और भी जो जो पाप उत्पन्न करनेवाले, जीवोंकी हिंसा करनेवाले, निन्द्य और सज्जन परुषोंके द्वारा वर्जित पदार्थ हैं वे सब पदार्थ द्रव्य कमानेके लिये विवेकी पुरुषोंको नहीं ले जाना चाहिये और अहिंसाव्रतको शुद्ध रखने के लिये न ऐसे पदार्थ किसी दूसरेको देने चाहिये || ५०-५२ || जो पुरुष अत्यन्त लोभी हैं तथा हिंसा करनेवाले पदार्थोंका व्यापार करते हैं, पाप-कर्मके उदयसे उनके घर रहनेवाली लक्ष्मी भी अपने आप चली जाती है और वे दरिद्रताके सन्मुख हो जाते हैं ॥ ५३ ॥ जो न्यायमार्ग में रहकर काम
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