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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार
३६५ तानेवोत्तमसत्पात्रान् विद्धि त्वं मुनिनायकान् । दानयोग्यान् महापूज्यान दातृसन्तारकान् भुवि ॥१३ सम्यक्त्वादिगुणोपेतान् श्रावकव्रततत्परान्। धर्मसंवेगसंयुक्तान् सत्प्रोषधविधायिनः ॥१४ देवगुर्वादिसम्भक्तान् दानपूजादिकारकान् । विद्धि त्वं श्रावकानेन पात्रमध्यमसंज्ञकान् ॥१५ सम्यग्दर्शनसंशुद्धा भक्ताः श्रीजिनशासने । पूजादितत्परा लोके संवेगादिविभूषिताः ॥१६ तत्त्वज्ञानादिश्रद्धानयुक्ता येऽष्टगुणान्विताः । ते एव पात्रता प्राप्ता जघन्याख्यं सुदृष्टयः ॥१७ शुद्धं सत्प्रासुकं स्निग्धं कृतादिदोषजितम् । तपो वृद्धिकरं सारं त्यक्तमिश्रसचित्तकम् ॥१८ कुटुम्बकारणोत्पन्नमन्नदानं सुखप्रदम् । स्वयमागतपात्राय दातव्यं गृहनायकैः ।।१९ श्रद्धा शक्तिश्च सद्भक्तिरलुब्धत्वं दया क्षमा । विज्ञानं सद्गुणा उक्ता दातृणां हि मुनीश्वरैः ॥२० प्रतिग्रहो मुनीन्द्राणामुच्चस्थानं तथैव च । पादप्रक्षालनं पूजा प्रणामश्चैकचित्ततः ॥२१ कायवाङ्मनसां शुद्धिरेषणाशुद्धिरेव हि । विधेर्नव सुभेदाः स्युहिणां पुण्यहेतवे ॥२२ संसप्तगुणयुक्तेन दानमाहारसंज्ञकम् । नवपुण्यान्वितेनैव देयं पात्राय भक्तितः ॥२३ प्रासुकं सर्वहिसादित्यक्तं योग्यं सुखप्रदम् । लोकनिन्दाविनिष्क्रान्तं सर्वामयविनाशकम् ॥२४ व्याधिग्रस्तमुनीन्द्राय चौषधं श्रावकोत्तमैः । ज्ञात्वा रोगं प्रदातव्यं तत्व्याध्यायुपशान्तये ॥२५ विश्वतत्त्वादिसम्पूर्ण लोकालोकप्रकाशम् । जिनेश्वरमुखोत्पन्नं ग्रथितं गौतमादिभिः ॥२६ जो दान देने योग्य हैं, महा पूज्य हैं, और दाताओंको संसारसे पार कर देनेवाले हैं ऐसे मुनिराजोंको ही तू उत्तम पात्र समझ ॥६-१३|| जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे सुशोभित हैं, श्रावकोंके धर्मको पालन करने में सदा तत्पर रहते हैं, धर्म और संवेग (संसारसे डर) से सुशोभित हैं, प्रोपधोपवास आदि आवश्यक क्रियाओंको करनेवाले हैं, देव गुरु शास्त्रके भक्त हैं, और और दान पूजा आदि कर्तव्यकर्मोको सदा पालन करते हैं, ऐसे श्रावकको तू मध्यम पात्र समझ ॥१४-१५॥ जो सम्यग्दर्शनसे शुद्ध हैं, श्री जिनेन्द्रदेवके शासनके भक्त हैं, जो पूजा प्रतिष्ठा आदि करनेमें तत्पर हैं, संवेग आदि गुणोंसे सुशोभित हैं, जिनको सातों तत्त्वोंका वा सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानादिका पूर्ण श्रद्धान है और जो आठ मूलगुणोंसे विभूषित हैं ऐसे असंयत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र गिने जाते हैं ।।१६-१७।। गृहस्थोंको अपने आप आये हुए पात्रोंके लिये शुद्ध, प्रासुक, चिकना वा मुलायम, कृत कारित अनुमोदना आदि दोषोसे रहित, तपश्चरणको बढ़ानेवाला, सचित्त-रहित, सचित्तकी मिलावटसे रहित, सारभूत, सुख देनेवाला और जो कुटुम्बी आदिके लिये बनाया गया हो ऐसा आहार दान देना चाहिये ।।१८-१९।। मुनिराजोंने श्रद्धा, भक्ति, शक्ति, अलुब्धता, दया, क्षमा और विज्ञान ये सात दाताओंके श्रेष्ठ गुण बतलाये हैं ॥२०॥ मुनियोंका पडगाहन करना, उनको ऊँचा आसन देना, उनके चरणकमल धोना, पूजा करना, चित्त लगाकर प्रणाम करना, मनको शुद्ध रखना, वचनको शुद्ध रखना, शरीरको शुद्ध रखना और आहारकी शुद्धि रखना ये नौ गृहस्थोंको पुण्य बढ़ानेवाले दानकी विधिके भेद कहलाते हैं इन्हींको नवधाभक्ति कहते हैं ।।२१-२२।। नवधा भक्ति करनेवाले और ऊपर लिखे हुए सातों गुणोंसे सुशोभित गृहस्थोंको भक्तिपूर्वक उत्तम पात्रोंके लिये प्रासुक, हिंसादिक समस्त पापोंसे रहित योग्य सुख देनेवाला, लोकनिन्दासे रहित और समस्त रोगोंको दूर करनेवाला आहार दान देना चाहिए ॥२३-२४॥ उत्तम गृहस्थोंको किसी मुनिराजको रोगी जानकर उस रोगको शान्त करनेके लिये उन्हें औषधि दान देना चाहिए ॥२५।। इसी प्रकार बुद्धि और संवेगको धारण करनेवाले ज्ञानी मुनियोंके लिये विवेकी गृहस्थोंको ज्ञानदान देना चाहिए तथा समस्त तत्त्वोंके कथनसे भरे हुए, लोक अलोकको
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