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श्रावकाचार-संबह दत्तं येनाभयं दानं सर्वजीवसुखप्रदम् । तेन दत्तं च पूर्वोक्तं सर्व दानकदम्बकम् ॥८० ययात्मनोऽपृथग्भूता भवन्ति दर्शनादयः । गुणा दानादयस्तद्वदभयेन सदैव च ॥८१ अद्रिमध्ये यथा मेरुर्देवमध्ये जिनो यथा। प्रधानोऽपि सुदानानां चाभयाख्यं वरं भवेत् ॥८२ अभयेन समं दानं न स्याल्लोकत्रये क्वचित् । मुनीनां श्रावकाणां वा महाफलप्रदेन वै ॥८३ • प्रदत्ते मरणार्थे ना कोऽपि कृत्स्नां धरां यदि । रत्नपूर्णा तथाप्यङ्गी नैव मृत्युं समीहते ॥८४ त्यक्तरोगवपुः कान्तं लावण्यादिविराजितम् । आदिसंहननोपेतं लभन्ते प्राणिनोऽभयात् ॥८५ मनोहरा शुभा सारा दक्षा धर्मोपदेशने । व्यक्ताक्षरान्विता वाणी पुंसां स्यादभयेन च ॥८६ तत्त्वचिन्तादिसंयुक्तं रागद्वेषपराङ्मुखम् । अभयाख्येन दानेन मनो धीरं भवेन्नृणाम् ॥८७ यो ना दत्तेऽभयं दानं सर्वजीवेभ्य एव हि । तस्य श्रीगुहदासीव वशं याति जगत्स्थिता ॥८८ आलिङ्गन्तं समादत्ते स्वर्गश्रीः स्वयमेव हि । गृहस्त्रीव गृहस्थानां कृपादानविपाकतः ॥८९ स्थूलसूक्ष्मादिजन्तुभ्यो यो ददात्यभयं सदा । स्वप्ने न तस्य जायन्ते सर्वे रोगभयादिकाः ॥९० षटखण्डवसुधारत्ननिधिदेव्यादिसंयुतम् । चक्रवतित्वमेव स्यात्कृपादानान्विताङ्गिनाम् ॥९१ अनेककोटिदेवैश्व पूज्यमिन्द्रत्वमेव भो। श्रयेन्नभयवानेन महाभोगप्रदं वरम् ॥९२ अनन्तमहिमोपेतं पूज्यं शक्रनुपादिभिः । भवेत्तीर्थकरत्वं हि नृणां प्राभयदानतः ॥९३
चारों दान सब व्यर्थ हैं ॥७९॥ जिस बुद्धिमान्ने समस्त जोवोंको सुख देनेवाला अभयदान दिया उसने पहिले कहे हुए चारों दान इकट्ठे दिये ऐसा समझना चाहिये ।।८०॥ जिस प्रकार ज्ञान दर्शन आदि आत्माके गुण आत्मासे भिन्न माने जाते हैं और उनका दान दिया जाता है उसी प्रकार अभयदानको समझना चाहिये अर्थात् अभय भी आत्माका ही गुण है और आत्माके साथ रहता है, परन्तु भिन्न मानकर उसका दान दिया जाता है ॥८॥ जिस प्रकार पर्वतोंमें सुमेरु पर्वत मुख्य है और देवोंमें भगवान् जिनेन्द्रदेव मुख्य हैं उसी प्रकार समस्त दानोंमें अभयदान ही मुख्य है और यही सबसे उत्तम है ।।८२॥ मुनि वा श्रावकोंको महाफल देनेवाले इस अभयदानके समान अन्य तीनों लोकोंमें कोई नहीं हो सकता ॥८३॥ यदि किसीको मरनेके बदले में रत्नोंसे भरी हुई समस्त पृथ्वी भी दे दी जाय तो भी कोई मरना स्वीकार नहीं करता ॥८४|| अभयदानके प्रभावसे यह प्राणी वज्रवृषभनाराच संहननसे सुशोभित लावण्य आदि गुणोंसे विभूषित और समस्त रोगोंसे रहित ऐसे मनोहर शरीरको पाता है ।।८५।। अभयदानके प्रतापसे मनुष्योंको मनोहर, शुभ, सारभूत धर्मोपदेश देनेमें चतुर और व्यक्त अक्षरोंसे सुशोभित ऐसे उत्तमवाणी प्राप्त होती है ॥८६॥ इस अभयदानके ही प्रतापसे मनुष्योंका हृदय सातों तत्त्वों के चिन्तवन करनेसे भरपूर, रागद्वेष रहित और अत्यन्त धीरवीर हो जाता है ।।८७॥ जो मनुष्य समस्त जीवोंको अभय दान देता है उसके घर तीनों लोकोंकी लक्ष्मी घरकी दासीके समान अपने आप वश हो जाती है ।।८८|| गृहस्थों को दयादानके फलसे स्वर्गको लक्ष्मी घरकी स्त्रीके समान आप आकर आलिंगन करती है ।।८९॥ जो स्थूल सूक्ष्म समस्त जीवोंको सदा अभयदान देता रहता है उसके रोग भय आदिक सब स्वप्न में भी कभी नहीं होते हैं ॥१०॥ दयादान करनेवाले मनुष्यों को छहों खण्ड पृथ्वी, नौनिधि, चौदह रत्न और अनेक सुन्दर रानियोंसे भरपूर चक्रवर्तीकी लक्ष्मी प्राप्त होती है ॥९१॥ अभयदानके प्रतापसे यह मनुष्य-अनेक करोड़ देव जिसको पूजा करते हैं, जो महा भोगोंको देनेवाला है और सबसे उत्तम है ऐसे-इन्द्रपदको प्राप्त होता है ।।९२॥ अभयदानके ही प्रतापसे मनुष्योंको अनन्त महिमासे सुशोभित और इन्द्र, नरेन्द्र आदिके द्वारा पूज्य ऐसे तीर्थकरपदकी प्राप्ति होती है ।।९३॥
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