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प्रश्नोत्तरावकाचार
पात्रदानं जिनाः प्राहुः पोतं संसारसागरे । गृहस्थानां महाघोरे दुःखममीनाकुले वरे ॥४० महाहिंसादिजे पापकर्मेन्धनसमुत्करे । जगुः सुपात्रदानं हि बुधाः सज्वलनोपमम् ॥४१ पापं विलीयते दानाद हस्ते न्यस्तांबुवत्क्षणम् । वर्द्धते च महापुयमिदुयोगेन वाधिवत् ॥४२ जायते च महासौख्यं ध्यानजातमिवाङ्गिनाम् । दुःखं पलायते दानात् प्रभाते तस्करादिवत् ॥४३ वृद्धि यान्ति गुणाः सर्वे दोषा यान्ति पुनः क्षयम् । कोतिरालिङ्गनं दत्ते कुकीर्ति शमिच्छति ॥४४ लक्ष्मीः सम्मुखमायाति स्वभार्येव कृतादरा । दारिद्रयं च विनश्येच्च यथा व्याधिर्वरौषधात् ॥४५ सञ्जायन्ते महाभोगाः सर्वेन्द्रियसुखप्रदाः । सर्वे रोगा विनश्यन्ति कृत्स्नदुःखप्रदा भुवि ॥४६ उत्तमाचारमायाति दुराचारं न तिष्ठति । महासत्पात्रदानेन श्रावकाणां विवेकिनाम् ॥४७ गृहस्थतापि दानेन भवेद्गुणवती नृणाम् । पूज्यपात्रोपकारश्च यथा सञ्जायतेतराम् ॥४८ यादृशं पात्रदानेन महत्पुण्यं भवेन्नृणाम् । तादृशं च व्रते नैव जीवघातादिदूषिते ॥४९ धन्यास्ते सद्गृहे येषां समायान्ति मुनीश्वराः । आहारार्थ महापूज्या इन्द्रचक्रधरादिभिः ॥५० पात्रदानानुमोदेन तिर्यञ्चोऽपि दिवं गताः । भोगभूमौ सुखं भुक्त्वा परमाह्लादकारणम् ॥५१ वारेकदानयोगेन दृष्टिहीना नरा गताः । देवालयं सुखं भुक्त्वा भोगभूम्यादिजं सुखम् ॥५२ महापात्रस्य दानेन दर्शनादिविभूषिताः । अच्युताख्यं बुधा नाकं प्रगच्छन्ति सुखाकरम् ॥५३ दिया उसने ज्ञानादिकके साथ-साथ यम नियम आदि सब कुछ दिया ॥३९।। यह संसार अनेक दुःखरूपी मगरमच्छोंसे भरा हुआ महा घोर सागर है इससे पार होने के लिये गृहस्थोंको एक पात्र दान ही जहाज है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेवने कहा है ॥४०॥ विद्वान् लोग इस पात्र दानको महा हिंसा आदिसे उत्पन्न हुए पापकर्मरूपो ईधनके समूहको जलानेके लिये अग्निके समान बतलाते हैं ।।४१।। जिस प्रकार हाथकी अंजलिमें रक्खा हआ जल क्षणभरमें नष्ट हो जाता है उसी प्रकार इस पात्रदानसे सब पाप क्षणभरमें नष्ट हो जाते हैं और जिस प्रकार चन्द्रमाके निमित्तसे समुद्र बढ़ता है उसी प्रकार इस पात्रदानसे महापुण्य बढ़ता रहता है ॥४२॥ इस पात्रदानसे प्राणियोंको महामुखकी प्राप्ति होती है और जिस प्रकार सवेरेके समय चोर भाग जाते हैं उसी प्रकार इस पात्रदानसे सब दुःख भाग जाते हैं ॥४३॥ विवेको श्रावकोंको उत्तम पात्रोंके लिये श्रेष्ठ दान देनेसे गुण सब बढ़ते रहते हैं और दोष सब नष्ट हो जाते हैं, कीर्ति अपने आप आकर आलिंगन करती है, अपकीर्ति स्वयं नष्ट होना चाहती है, लक्ष्मी अपनी स्त्रीके समान आदरपूर्वक अपने आप सामने आती है, जिस प्रकार औषधिसे व्याधि नष्ट हो जाती है उसी प्रकार दरिद्रता सब नष्ट हो जाती है, समस्त इन्द्रियोंको सुख देनेवाले महा भोगोंकी प्राप्ति होतो है, अनेक दुःख देनेवाले रोग सब नष्ट हो जाते हैं, सदाचार आ जाता है और दुराचार अपने आप नष्ट हो जाता है ।।४४-४७।। आहारदान देनेसे जिस प्रकार पूज्य पात्रोंका अत्यन्त उपकार होता है उसी प्रकार सातों गुणोंसे सुशोभित गृहस्थ मनुष्योंका उपकार भी दानसे ही होता है ॥४८॥ उत्तम पात्रोंको दान देनेसे मनुष्योंको जैसे महापुण्यकी प्राप्ति होती है वैसे पुण्यकी प्राप्ति
के किसीसे नहीं होती, क्योंकि उनमें भी जीव घात होनेकी सम्भावना है ।।
४९५ न्य हैं जिनके घर इन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण आदि सबके
जनराज आहारके लिए आते हैं ॥५०॥ इस पात्रदानकी केवल अनुमोदना करनेसे व मी परम आनन्दको देनेवाले भोग भूमिके सुख भोगकर स्वर्गमें जा उत्पन्न हुए हताजा मनुष्य सम्यग्दर्शनसे रहित हैं वे भी केवल एक बार पात्रोंको दान देनेसे भोग-भूमिके सुख भोगकर स्वर्गमें देव हुए हैं ॥५२॥ जो
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