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अठारहवाँ परिच्छेद
अरतीर्थकरं वन्दे अनन्तगुणसागरम् । नष्टकर्मारिसन्तानं जिनेशमरिशान्तये ॥१ गुणव्रतानि व्याख्याय वक्ष्ये शिक्षावतान्यहम् । उपकाराय भव्यानां शिक्षासम्पादनानि च ॥२ . देशावकाशिक पूर्व ततः समायिकं भवेत् । सत्प्रोषधोपवासश्च वैयावृत्यं सुदानजम् ॥३ मर्यादीकृत्य देशस्य मध्ये तिष्ठन्ति धोधनाः । बहिन च ततो गीतं जिनर्देशावकाशिकम् ॥४ देशावकाशिकं लोके भवेदेच्छस्यं हि सन्नृणाम् । दिनादिसंख्यया सर्व दिकसंहारोघशान्तये ॥५ वनदेशनदीग्रामक्षेत्रक्रोशादियोजनैः । देशावकाशिकस्यैव जिनाः सीमामुशन्ति वै ॥६ दिनादिपक्षमासैक-ऋत्वयनाब्दगोचरा । कालावधिजिनरुक्ता आद्यशिक्षाव्रतस्य भो॥७ मर्यादापरतो न स्यात्पञ्चपापप्रवर्तनम् । मनोवाक्काययोगेन व्रताधिष्ठितचेतसा ॥८ तस्मान्महावतायैव कल्पन्तेऽणुव्रतान्यपि । प्रमाणतो बहिर्भागे नृणां घातादिवर्जनात् ॥९ सन्तोषं स समाधत्ते पुण्यं जीवदयादिकम् । आशालोभादिनाशं च धत्ते देशवताद् गृही॥१० चञ्चलत्वं परित्यज्य कुरु देशावकाशिकम् । कालादिसंख्यया मित्र! सद्धर्माय व्रताय च ॥११
__ जो अनन्त गुणोंके सागर हैं जो गुणस्वरूप हैं जिनराज हैं और जिन्होंने कर्मरूप शत्रुओंको सब सन्तान नाश कर दी हैं ऐसे श्री अरनाथ तीर्थंकरको मैं कर्मरूप शत्रुओंको नाश करनेके लिये नमस्कार करता हूँ ॥१॥ इस प्रकार गुणव्रतोंका निरूपणकर अब मैं भव्य जीवोंका उपकार करनेके लिये शिक्षाको संपादन करनेवाले शिक्षाव्रतोंको कहता हूँ ॥२॥ देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और दानके साथ होनेवाला वैयावृत्य ये चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं ॥३॥ दशों दिशाओंकी मर्यादा नियतकर जो बुद्धिमान उसके बाहर नहीं जाते भीतर ही रहते हैं उनके श्रीजिनेन्द्रदेव देशावकाशिक व्रत कहते हैं ।।४।। इस संसारमें जो दिनोंकी संख्या नियत कर उतने दिनोंके लिये दिग्वतका उपसंहार करना, दिशाओंकी मर्यादा और घटा लेना यह सज्जनोंका प्रशंसनीय देशावकाशिक व्रत कहलाता है ॥५।। श्री जिनेन्द्रदेव वन, घर, नदी, गाँव, खेत, कोस, योजन आदिको देशावकाशिककी सीमा बतलाते हैं अर्थात् देशावकाशिक व्रतमें इनकी सीमा नियत करनी चाहिये अथवा कोस और योजनोंके द्वारा सीमा नियत करनी चाहिये ॥६॥ श्री जिनेन्द्रदेव इस देशावकाशिक व्रतकी दिन पक्ष महीना छह महीना एक वर्ष आदिको कालकी मर्यादा कहते हैं अर्थात् कालकी अवधि नियतकर देशावकाशिक व्रत धारण करना चाहिये ॥७॥ जिसने अपने हृदयमें देशावकाशिक व्रत धारण कर लिया है उसके मर्यादाके बाहर मन वचन कायसे पांचों पापोंकी प्रवृत्ति नहीं होती, इसलिये मर्यादाके बाहर समस्त जीवोंकी हिंसाका त्याग हो जानेसे उसके अणुव्रत भी महाव्रतके लिये कल्पना किये जाते हैं। भावार्थ-प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय होनेसे उसके महाव्रत हो तो सकते नहीं परन्तु मर्यादाके बाहर उससे कोई पाप भी नहीं होता इसलिये उसके अणुव्रत मर्यादाके बाहर महाव्रतके समान गिने जाते हैं ।।८-९॥ देशावकाशिक व्रतको धारण करनेवाले पुरुषके सन्तोष धारण होता है, जीवोंकी दया करने रूप महा पुण्यकी प्राप्ति होती है और तृष्णा लोभ आदि विकार सब उसके नष्ट हो जाते हैं ॥१०॥ इसलिये हे मित्र!
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