Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 376
________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार ३४३ शुभेतरविकल्पं यः श्रुत्वा नाम कदम्बकम् । रागादिकं त्यजेद्धीमान् नाम सामायिकं श्रयेत् ॥२४ दृष्ट्वा शुभाशुभं रूपं चेतनेतर हि यः । त्यजेद्रागादिकं स स्थापनासामायिकं भजेत् ॥२५ लोष्टहेमादिद्रव्येषु समचित्तं करोति यः। द्रव्यसामायिकं तस्य भवेन्नान्यस्य सर्वथा ॥२६ शुभेतरप्रदेशं यः सुखदुःखादिसङ्कलम् । प्राप्य रागादिकं हन्यात् क्षेत्रसामायिकं भजेत् ॥२७ शीतोष्णादिषु कालेषु समतां ये वितन्वते । कालसामायिकं तेषां भवत्येव न संशयः ॥२८ त्यक्त्वा रागादिकं योऽरिमित्रादिषु करोति ना । समताधिष्ठितं भावं भावसामायिकं श्रयेत् ॥२९ स्वचित्तं यो विधत्ते हि सर्वसावधजितम् । त्यक्त्वा रागादिसन्दोहं धर्मध्यानसमन्वितम् ॥३० तस्य सामायिकं सारं भवेत्सर्वसखाकरम। स्वर्गमक्तिकरं कर्मकक्षदावानलोपमम ॥३१ गह्वरादिवनाद्रौ वा शून्यागारे जिनालये । स्वगृहे तीव्रशीतादिवजिते चित्तसाम्यदे ॥३२ 'त्यक्तककेशशब्दस्त्रीपशुलोकादिके सुहृत् । एकान्ते ध्यानयोगे च दंशकोटाद्यगोचरे ॥३३ एकवस्त्रं विना त्यक्त्वा सर्वबाह्यपरिग्रहान् । प्रोषधं चैकभक्तं वा कृत्वा सामायिकं कुरु ॥३४ कृत्वा सुनिश्चलं देहं भ्रूविकारादिवजितम् । मुखादिसाम्यतापन्नं त्यक्तहस्तादिसंज्ञकम् ॥३५ उत्तराभिसुखं चैत्यगेहादौ चाह्निसंस्थितः । सामायिक सुधीः स्वस्थो विदध्यात्करकुड्मलम् ॥३६ मनःस्थिरं विधायोच्चः सङ्कल्पादिविजितम् । गृहचिन्तादिसंत्यक्तं ध्यानाध्ययनतत्परम् ॥३७ बुद्धिमान् शुभ और अशुभके भेदोंको सुनकर राग-द्वेषका त्याग कर देता है उसके नाम सामायिक होता है ।।२४।। जो शुभ और अशुभरूप चेतन तथा जड़ पदार्थों को देखकर राग-द्वेषादिकका त्याग करता है उसका वह स्थापना सामायिक कहलाता है ॥२५॥ जो सुवर्ण मिट्टी आदि पदार्थोंमें समान भाव रखता है उसके द्रव्य सामायिक होता है। यह द्रव्य सामायिक समतावालेके ही होता है अन्य किसीके नहीं ॥२६॥ जो किसी शुभ देशमें सुख पाकर और अशुभ देशमें दुःख पाकर रागद्वेषका त्यागकर देता है वह क्षेत्र सामायिक कहलाता है ॥२७॥ जो शीतकालमें तथा उष्णकालमें समता धारण करते हैं किसी कालको भी सुख वा दुख देनेवाला नहीं मानते उनके काल सामायिक होता है इसमें कोई सन्देह नहीं ॥२८॥ जो मित्र शत्रु आदिमें रागद्वेष छोड़कर अपने हृदय को समस्त पापोंसे रहित बना लेता है और धर्मध्यान धारण करता है उसके समस्त सुखोंकी खानि, स्वर्गमोक्षको देनेवाला और कर्मरूपी वनको जलानेके लिये दावानल अग्निके समान सारभूत भावी सामायिक होता है ॥२९-३१।। वह सामायिक किसी गुफामें, वनमें, पर्वतपर, सूने मकानमें जिनालयमें वा अपने घरमें जहां कि न तो अधिक शीत हो न अधिक उष्णता हो, जहाँपर चितमें समता बनी रहे, जहाँपर कठोर शब्द न होते हों, स्त्रियां न हों, पशु न हों, लोग न हों, मित्र न हों, जो ध्यानके योग्य एकान्त स्थान हो और जहाँपर डांस मच्छर कीड़े आदि न हों ऐसे स्थानपर एक धोतीके (एक वस्त्रके) विना अन्य सर्व बाह्य परिग्रहोंका त्यागकर प्रोषधोपवास अथवा एकाशन करके अवश्य सामायिक करना चाहिये ॥३२-३४।। उस समय शरीरको निश्चल रखना चाहिये, भोह चलाना मुह मटकाना आदि सबका त्याग कर देना चाहिये, मुखपर समताभाव प्रगट होना चाहिये, हाथसे इशारा करना आदि सबका त्यागकर देना चाहिये ॥३५॥ बुद्धिमानोंको जिनालय अथवा घरमें उत्तरकी ओर मुंहकरके हाथ जोड़कर और स्वस्थचित्तसे स्थित होकर सामायिक करना चाहिये ॥३६॥ संकल्प-विकल्प आदिका त्यागकर मनको स्थिर रखना चाहिये। घरको चिन्ता सब छोड़ देनी चाहिये, तथा ध्यान और अध्ययनमें तत्पर रहना चाहिये ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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