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उत्तर-हे भव्य ! यह सम्यग्दर्शन अनुपम गुणोंका निधि है, स्वर्ग मोक्षको जड़ है। तीनों लोकोंके स्वामी तीर्थकर भी इसकी सेवा करते हैं । यह कर्मरूपी वृक्षको काटनेके लिये कुठारके समान है। संसाररूपी महासागरसे पार होनेके लिये जहाजके समान है। पुण्यरूप है, तीर्थरूप है और अत्यन्त पवित्र है। इसलिये तू सब तरहकी कुसंगतियोंसे बचकर आठों अंगों सहित इसका पालन कर ॥६१॥
इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीतिविरचित प्रश्नोत्तर श्रावकाचारमें आठों
अंगोंको निरूपण करनेवाला यह चौथा परिच्छेद समाप्त हुआ ॥४॥
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