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श्रावकाचार-संग्रह अथानन्तमती ब्रूते दृष्टं संसारसंभवम् । वैचित्र्यं दुःखसम्पूर्ण तात दापय मे तपः ॥३७ गृहाण पुत्रि वेगेन तपः कर्मविनाशकम् । स्वर्गमुक्तिकरं सारं दुःखदावाग्निवाच्चम् ॥३८ सा तस्या समीपे च गृहीत्वा संयमं परम् । तपः कृत्वा महाघोरं द्विषभेदं जिनोदितम् ॥३९ अन्ते संन्यासमादाय त्यक्त्वा प्राणान् बभूव सा । हत्वा स्त्रीलिङ्गमप्युच्चैः सहस्रारे सुरोत्तमः ॥४० अष्टादशसमुद्रायुर्भुक्त्वा तत्र सुखं वरम् । सम्यक्त्वयोगतोऽप्यने क्रमात्मुक्ति प्रयास्यति ॥४१ या सीताख्या महादेवी धृत्वा निःकाक्षितं गुणम् । जाता षोडशमे स्वर्ग देवो देवः प्रपूजितः ॥४२ तस्याः कथा परिज्ञेया शास्त्रे रामायणादिके । अन्येऽपि बहवः सन्ति कस्तांश्च गदितुं क्षमः ॥४३ इति मत्वा सदा कार्यो गुणो निकांक्षिताभिधः । काङ्क्षादिकं परित्यज्य भोगे स्वर्गादिगोचरे ॥४४
निःकाङ्क्षिताख्यं परमं हि धृत्वा, गुणं गरिष्ठा दृढशीलयुक्ता।
स्वर्ग वजित्वा पुनरेति मुक्ति, सद्दर्शनानन्तमतो सुधर्मात् ॥४५ इति श्रीभट्टारकसकलकोतिविरचिते प्रश्नोत्तरश्रावकाचारे निःकाङ्क्षितगुणप्ररूपणे
अनन्तमतीकथाप्ररूपणो नाम षष्ठः परिच्छेदः ।।६।।
उठा ली और फिर पीछेकी सब बातें पूछीं। सेठ जिनदत्तने भी अपनी भानजीके मिल जानेपर बड़ा भारी उत्सव किया ॥३६।। तदनन्तर अनन्तमतीने कहा कि हे पिताजी ! मैंने इस संसारको खूब देख लिया है। इसमें अनेक प्रकारके विचित्र दुःख भरे हुए हैं। यह दुःखोंसे भर रहा है इसलिये हे तात ! अब मुझे दीक्षा दिला दीजिये ॥३७॥ तब प्रियदत्तने उत्तर दिया कि पुत्रो ! तू शीघ्र ही तपश्चरण धारण कर, क्योंकि यह तपश्चरण ही कर्मोको नाश करनेवाला है, स्वर्ग मोक्षके सुख देनेवाला है, सबमें सार है और दुःखरूपी दावानल अग्निके लिये मेषकी धाराके समान है ॥३८॥ तब पिताकी आज्ञासे उस अनन्तमतोने उस आर्यिकाके समीप जाकर परम संयम धारण किया और वह भगवान् जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ बारह प्रकारका घोर तपश्चरण करने लगी ॥३९।। अन्तमें उसने समाधिमरण धारण किया तथा प्राणोंको छोड़कर और स्त्रीलिंगको छेदकर बारहवें सहस्रार स्वर्ग में उत्तम देव हुई ॥४०॥ वहाँपर उसको अठारह सागरको आयु थी। अठारह सागर पर्यन्त उत्तम सुख भोगकर वह अनन्तमतीका जीव सम्यग्दर्शनके प्रभावसे अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करेगा ॥४१॥ रामचन्द्रकी पट्टमहादेवी सीताने भी निःकांक्षित अंगका पालन किया था और उसोके प्रभावसे वह सोलहवें स्वर्गमें इन्द्र हुई थी जहां कि अनेक देव उसकी पूजा करते थे ।।४२।। उस सती सीताको कथा पद्मपुराणसे जान लेनी चाहिये । इनके सिवाय इस निःकांक्षित अंगको पालन करनेवाले और भी बहुतसे जोव हुए हैं उन सबको कोई कह भी नहीं सकता है ।।४३।। यही समझकर भव्य जीवोंको सदा निःकांक्षित अंगका पालन करना चाहिये और स्वर्गादिके सुखोंको इच्छा कभी नहीं करनी चाहिये ॥४४॥ देखो शीलव्रतको दृढ़तापूर्वक पालन करनेवाली और अनेक गुणोंसे सुशोभित तथा सम्यग्दर्शनको धारण करनेवाली अनन्तमती एक निःकांक्षित परम गुणको धारण करनेसे ही स्वर्गमें उत्तम देव हुई है और धर्मके प्रभावसे अन्तमें मोक्ष प्राप्त करेगी ( वह अनन्तमती सबका कल्याण करे) ॥४५॥ इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति विरचित प्रश्नोत्तरश्रावकाचारमें निःकांक्षित गुणमें प्रसिद्ध
होनेवाली अनन्तमतीको कथाको कहनेवाला यह छठा परिच्छेद समाप्त हुआ ||५||
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