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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार
निधिः सर्वसुखादीनां कृपापि कथिता बुधैः । स्वर्गमुक्तिगृहद्वारे प्रतोली कृत्स्नसौख्यदा ॥६९ रत्नत्रयस्य सत्खानिर्दयादक्षैः प्ररूपिता । सम्यग्ज्ञानादिसद्रत्नकारणा हितकारिका ॥७० सद्धर्माराम सारस्य नाकमोक्षफलस्य वै । कृपादृष्टि जिनैः प्रोक्ता दुःखदाहविनाशिनी ॥७१ सखी सन्मुक्तिभार्या हि वरा तच्चित्तरञ्जिका । अहिंसा मुनिभिः सेव्या नित्यं सत्सङ्गलालसैः ॥७२ अहिंसाव्रत रक्षार्थं भो महाव्रतपञ्चकम् । दक्षेः समितिगुप्त्यादि सर्वं चाचर्यंते स्फुटम् ॥७३ मुनीनां च गृहस्थानां सर्व व्रतकदम्बकम् । एकाहिंसाप्रसिद्धयर्थं भाषितं मुनिपुंगवैः ॥७४ अहिंसाख्यं व्रतं धीमान् यस्तनोति प्रयत्नतः । तस्य सर्वव्रतानि स्युः विना कष्टेन प्रत्यहम् ॥७५ दयां त्यक्त्वापि यः कुर्याद्यत्तपोऽतिव्रतादिकम् । तत् सर्वं विफलं तस्य विना चाङ्केन शून्यवत् ॥७६ दृढीकृत्य दयां चित्ते तपः स्तोकं करोति यः । सुधोस्तत्तस्य चामुत्र स्यान्महाफलकारणम् ॥७७ तपो धर्म व्रतं दानं ध्यानं पूजा गुणादिकम् । दयां विनात्र व्यर्थं स्यात्कायक्लेशं च प्राणिनाम् ॥७८ वरं चैकव्रतं सारं सर्वजीवाभयप्रदम् । तद्विना देहिनां नैतत् सर्वं व्रतकदम्बकम् ॥७९ मन्ये स एव पुण्यात्मा यस्य चित्तं सुवासितम् । कृपया सर्वजीवेषु धर्मयुक्तस्य प्रत्यहम् ॥८०
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है और समस्त उत्तम गुणों को देनेवाली है ||६८ || बुद्धिमान् लोग इस दयाको सब सुखोंकी निधि बतलाते हैं, स्वर्ग मोक्षरूपी घर में जानेके लिये यह दया ही द्वारकी देहली है और यही समस्त संसारको सुख देनेवाली है || ६९ || दया पालन करनेमें अत्यन्त चतुर पुरुषोंने निरूपण किया है कि यह दया ही रत्नत्रयकी खानि है, दया ही सम्यग्ज्ञान आदि श्रेष्ठ रत्नोंको उत्पन्न करनेवाली है और यही सबका हित करनेवाली है || ७०|| श्री जिनेन्द्रदेवने वर्णन किया है कि श्रेष्ठ धर्मरूपी arrat शोभा बढ़ाने के लिये, उसपर स्वर्ग मोक्षके फल लगानेके लिये और दुःखरूपी उष्णता वा अग्निके संतापको नष्ट करनेके लिये यह दया ही मेघकी वर्षाके समान है ॥ ७१ ॥ | यह अहिंसा ही मुक्तिरूपी स्त्रीकी सखी है और वरके चित्तको प्रसन्न करनेवाली है, इसलिये सत्संगकी लालसा रखनेवाले मुनियोंको इस अहिंसाका सेवन अवश्य करना चाहिये ||७२ || इस अहिंसा व्रतकी रक्षा के लिये ही चतुर पुरुषोंने पाँचों महाव्रतोंका निरूपण किया हे और गुप्ति आदि सब व्रतोंका निरूपण केवल अहिंसा व्रतकी रक्षा के लिये ही किया है || ७३ || अनेक मुनिराजोंने स्पष्ट शब्दोंमें कहा है कि मुनि और गृहस्थोंके समस्त व्रतोंके समूहका वर्णन केवल अहिंसा व्रतको रक्षा वा प्रसिद्धि के लिये ही है ||७४ || जो बुद्धिमान इस एक अहिंसा नामके व्रतको ही प्रयत्नके साथ पालन कर लेता है उसके बिना किसी कष्टके प्रतिदिन समस्त व्रतोंका पालन हो जाता है || ७५ ॥ जिस प्रकार विना अंकके अनन्त शून्य भी व्यर्थं होते हैं उसी प्रकार जो मनुष्य दयाको पालन किये विना ही तप व्रत आदि करना चाहता है उसका वह तप व्रत आदि सब व्यर्थ और निष्फल हैं || ७६ || जो बुद्धिमान् अपने हृदय में दयाको सुदृढ़ बनाकर थोड़ा-सा भी तप करता है वह इस लोक और परलोक में भी अनेक महाफलोंको प्राप्त होता है ॥७७॥ बिना दयाके तप, धर्म, व्रत, ज्ञान, ध्यान, पूजा और गुण आदि सब व्यर्थ हैं। बिना दयाके ये तप आदिक सब जीवोंके शरीरोंको केवल कष्ट पहुँचानेवाले हैं और इनसे कोई लाभ नहीं || ७८|| समस्त जीवोंको अभयदान देनेवाला और सबमें सारभूत ऐसा यह अहिंसा रूप एक व्रत ही अच्छा परन्तु इसके विना समस्त व्रतों का समुदाय भी जीवोंके लिये कल्याणकारी नहीं || ७९ ॥ | जिस धर्मात्माका हृदय प्रतिदिन समस्त जीवोंपर होनेवाली कृपासे सुगन्धित है, भरपूर है उसीको में (आचार्य) सबसे अधिक पुण्यवान् मानता हूँ ||८०|| जो धर्म दयारहित है, जो तप दयारहित है और प्राणियों का जो जीवन ३६
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