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श्रावकाचार-संग्रह
मन्येहमेवं मूढानां वरस्त्रीसङ्गसम्भवम् । यद्दुःखं तद्धि सौख्यं च भासते बुद्धिनाशतः ॥१३ परनारी समीहन्ते ये चेह विषयाकुलाः । वधवन्धादिकं क्लेशं सर्वस्वहरणं तथा ॥१४ प्राप्यतेऽसुत्र लोकेऽहो मज्जन्ति श्वभ्रसागरे । दुस्सहे विषमे घोरे दुःखमीनसमाकुले ॥१५ परस्त्रिया समं येऽत्र कुर्वन्त्यालिङ्गनादिकम् । तदामुत्र भवेत्तेषाम् तप्तलोहाग्निरामया ॥१६ कामदाहो न शाम्येत परस्त्रीतैलसिञ्चितः । स एवोपशमं याति ब्रह्मचर्याम्बुसिञ्चितः ॥१७ कामज्वरमपहन्ते निराकर्तुं हि येऽधमाः । पररामौषधेन तैलेनाग्नि सिञ्चन्ते बुधाः ॥१८ वरं हालाहलं भुक्तमग्नौ वा सागरेऽचले । झपापातो न पुंसा च शोलादिच्युतजीवितम् ॥१९ वैराग्याधिष्ठितं कृत्वा हृदयं शीलवासितम् । परदारां त्यज त्वं भो सर्पिणीमित्र सर्वथा ॥ २० मद्यमांसादिसंसक्तां मातङ्गादिषु लम्पटाम् । अयशः पापखादिकरां वेश्यां त्यजेद् बुधः ॥२१ सर्वव्यसनदां क्रूरां कुटिलां कुटिलाननाम् । त्यज त्वं गणिजां पापां घनधर्मेषु तस्करीम् ॥२२ गौरचर्मावृतां बाह्ये वस्त्राभरणमण्डिताम् । मधुरां मधुरालापां गीतनृत्यकरां वराम् ॥२३ स्वरूपां होनसत्त्वानां मनः क्षोभकरां सुहृत् । स्वैरिणों गणिकां चान्यां दृष्ट्वा मध्ये विचारय ॥२४
हो सकता है क्योंकि वहाँ तो उसे सदा अपने मारे जानेकी ही आशंका लगी रहती है ||१२|| मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि परस्त्री समागम करनेवालोंकी बुद्धि नष्ट हो जाती है इसलिये उन मूर्खोको परस्त्रीके समागमसे जो दुःख उत्पन्न होता है उसे ही वह सुख मान लेता है ||१३|| विषयोंसे व्याकुल हुए जो मनुष्य परस्त्रीकी इच्छा करते हैं वे वध बन्धनके अनेक क्लेश सहते हैं, उनका सब धन हरण कर लिया जाता है और मरकर परलोकमें दुःखरूपी अनेक मछलियोंसे भरे हुए असह्य, विषम और घोर ऐसे नरकरूपी महासागर में डूबते हैं ||१४-१५ ।। जो पुरुष परस्त्रियोंके साथ आलिंगनादिक करते हैं, परलोकमें नरकमें जाकर उनके शरीरसे, अग्निसे लालकी हुई लोकी पुतलियां चिपकाई जाती हैं ||१६|| परस्त्रीरूपी तेलके सींचने से यह कामरूपी अग्नि कभी शान्त नहीं होती और ब्रह्मचर्यरूपी जलके सींचने से यह कामाग्नि अपने आप शान्त हो जाती है ||१७|| जो नीच पुरुष कामज्वरको परस्त्री रूपी औषधिसे दूर करना चाहते हैं वे अग्निको तेलसे बुझाना चाहते हैं ||१८|| हालाहल विष खा लेना अच्छा, अग्नि में जल मरना अच्छा, समुद्रमें डूब जाना अच्छा, तथा पर्वत से गिर पड़ना अच्छा, परन्तु मनुष्योंका शोलरहित जीवित रहना अच्छा नहीं ||१९|| इसलिये हे भव्य ! अपने हृदयमें वैराग्य धारण कर और हृदयको शीलव्रत से सुशोभित कर सर्पिणीके समान परस्त्रीका सर्वथा त्याग कर ||२०||
इसी प्रकार मद्य, मांस आदिमें आसक्त होनेवाली चांडालादिकके साथ लम्पटता धारण करनेवाली तथा अपयश, पाप और दुःखादिको उत्पन्न करनेवाली वेश्याका भी तू सर्वथा त्याग कर ||२१|| यह वेश्या समस्त व्यसनोंको उत्पन्न करनेवाली है, क्रूर है, कुटिल है, पापिनी है, धन और धर्मको चुरानेवाली है और इसका मुख स्वाभाविक कुटिल है ( कहती कुछ है करती कुछ है) ऐसी वेश्याका तू दूरसे ही त्याग कर ||२२|| यद्यपि यह वेश्या ऊपरसे गोरे चमड़ेसे मढी हुई है, बाहरसे वस्त्र आभरणोंसे सुशोभित हो रही है, इसका स्वर भी मधुर है, गीत नृत्य करने वाली है, रूपवती है और अच्छीसी जान पड़ती है तथापि हे मित्र ! यह नीच प्राणियोंके ही मनमें क्षोभ उत्पन्न करती है, यही विचार कर हे मित्र ! इस स्वेच्छाचारिणी वेश्याका तू त्याग कर
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