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श्रावकाचार-संग्रह परिग्रहप्रमाणं ये स्वल्पं कुर्वन्ति धीधनाः । आगच्छति हठात्तेषां परीक्षार्थ महद्धनम् ॥२६ नियमेन विना प्राणी पशुरेव न संशयः। परिग्रहप्रमाणस्य स्वेच्छाचारणकारणात् ॥२७ क्वचित्सूर्यस्त्यजेद्धाम स्थिरत्वं च सुराचलः । विना न नियमात्पुंसां पुण्यं सञ्जायते तराम् ॥२८ यथा हि पशवो नग्नाः पुण्यं सन्नियमाद्विना । न लभन्ते तथा ज्ञेयाः प्राणिनो धनजिताः॥२९ नियमेन सदा नृणां पुण्यं जायेत पुष्कलम् । सन्तोषं च यशो लोके इन्द्रियादिजयं शमम् ॥३० मनोगजो वशं याति नियमाङ्कुशताडनात् । भ्रमन् स विषयारण्ये मूलयन् धर्मसद्रुमान् ॥३१ हत्वा लोभं दुराचारं स्वशक्तिमनिगुह्य भोः । सन्तोषखड्गतीक्ष्णेन भज त्वं नियमादिकम् ॥३२ यतो लोभाकुलः प्राणी हन्ति सद्गुरुसज्जनान् । धनाथं पापमाचष्टे येन श्वभ्रालयं ब्रजेत् ॥३३ लोभाविष्टो न जानाति धर्म पापं सुखासुखम् । हिताहितं गुरुं देवं कुगतिं च गुणागुणम् ॥३४ लोभादङ्गो भ्रमेद्देशान्द्वीप-सागरगोचरान् । धनार्थ प्रविधत्ते च कपटादिसहस्रकान् ॥३५ लोभाकृष्टो व्रजेन्नैव सन्तोषं घतभूरिभिः । इन्धनैरनलो यद्वत्सागरो वा सरिज्जलेः ॥३६ लोभाविष्टमनुष्याणामाशा विश्वं विसर्पति । तस्या न शान्तये विश्वं दत्तं रत्नादिसम्भूतम् ॥३७ अर्थ दुःखेन चायाति स्थिरं दुःखेन रक्ष्यते । गते दुखं भनेन्नणां घिगर्थं दुःखभाजनम् ॥३८
निवास करती है ॥२५॥ जो बुद्धिमान् थोड़ेसे भी परिग्रहका परिमाण कर लेते हैं उनके घर उनकी परीक्षा करनेके लिये बहुत-सा धन स्वयमेव आ जाता है ॥२६॥ परिग्रहोंका नियम किये विना यह प्राणी पशुके समान है इसमें कोई संदेह नहीं, क्योंकि दोनों ही परिग्रहका परिमाण किये विना अपनी इच्छानुसार परिभ्रमण करते हैं ॥२७॥ कदाचित् सूर्य अपना तेज छोड़ दे और सुमेरु पर्वत अपनी स्थिरता छोड़ दे तो भी विना नियमके मनुष्योंको पुण्यकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकती ॥२८॥ जिस प्रकार पशु नग्न रहते हुए भी विना किसी प्रकारका नियम धारण किये पुण्य प्राप्त नहीं कर सकते, उसी प्रकार धर्मरहित प्राणी भी बिना नियमके पुण्य सम्पादन नहीं कर सकते ॥२९॥ यम नियम पालन करनेसे मनुष्योंको प्रचुर पुण्यकी प्राप्ति होती है और सन्तोष धारण करनेसे संसारमें यश फैलता है तथा इन्द्रियां वशमें हो जाती हैं, मन शान्त हो जाता है ।।३०॥ नियमरूपी अंकुशके ताड़न करनेसे विषयरूपी वनमें इच्छानुसार घूमता हुआ और धर्मरूपी श्रेष्ठ वृक्षोंको उखाड़ता हुआ मनरूपी हाथी वशमें हो जाता है ॥३१॥ हे भव्य ! सन्तोषरूपी तीक्षण तलवारसे अपनी पूर्ण शक्ति लगाकर लोभरूपो दुराचारका नाशकर और नियमादिक वा परिग्रहका परिमाण धारण कर ॥३२॥ इसका भी कारण यह है कि लोभके फंदेमें फंसा हुआ यह प्राणी धनके लिये गुरु और सज्जन लोगोंको भी मार देता है और अनेक प्रकारके पाप उपार्जन करता है जिन पापोंके फलसे उसे नरकमें ही जाना पड़ता है ॥३३॥ लोभी मनुष्य न तो धर्मको समझता है, न पापको जानता है, न सुख-दुःखको जानता है, न हित-अहितको जानता है, न गुरुको समझता है, न देवको समझता है, न कुगतिको जानता है और न गुण-अवगुणको जानता है ॥३४॥ यह जीव लोभके ही कारण अनेक देशोंमें तथा द्वीप-समुद्रोंमें परिभ्रमण करता है और धनके लिये ही हजारों कपट बनाता है ॥३५॥ जिस प्रकार अग्निको बहुतसे ईंधनसे भी सन्तोष नहीं होता और समुद्रको अनेक नदियोंके जलसे भी सन्तोष नहीं होता उसी प्रकार लोभी पुरुषको बहुत-सा धन मिल जानेपर:भी सन्तोष नहीं होता ॥३६॥ लोभी मनुष्योंकी आशा समस्त संसारमें फैल जाती है और रत्न आदि संसारभरका समस्त धन दे देनेपर भी वह शान्त नहीं होती ॥३७॥ यह धन दुःखसे आता
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