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श्रीवकांचार-संग्रह उल्लंघ्य न्यायमार्ग यो धत्ते भाराधिरोपणम् । दयां विना भवेत्तस्य व्यतिपातोऽशुभप्रदः ॥५१
सुगतिगृहप्रवेशं धर्मरत्नादिभाण्डं, नरकगृहकपाटं धर्मरत्नाकरं वें।
अशुभतरुसमोरं लोभमातङ्गसिहं, कुरु धनपरिमाणं तोषसारं गृहीत्वा ॥५२ पञ्चमाणुव्रतं धत्ते यः पूजां प्राप्य देवजाम् । इहैवाशु क्रमाद्याति स्वर्ग मुक्ति च शुद्धधीः ॥५३ सम्प्राप्ता येन सत्पूजा व्रतादिहामरैः कृता । विधायानुग्रहं स्वामिन् ! कथां तस्य निरूपय ॥५४ शृणु धावक ! संकृत्वा मनः संकल्पवर्जितम् । जयाख्यस्य नृपस्यैव कथां वक्ष्ये शुभप्रदाम् ॥५५ कुरुजाङ्गलसद्देशे हस्तिनागपुरे शुभे । कुरुवंशे नृपः पुण्यादभवत्सोमप्रभाह्वयः ॥५६ तस्य पुत्रो जयो नाम कृतसंख्यां परिग्रहः । भार्या सुलोचनायां तु प्रवृत्तिस्तस्य नान्यथा ॥५७ एकदा दम्पती पूर्व विद्याधरभवस्य तौ। कथयित्वा कथां यावस्थितौ अवधिवीक्षणौ ॥५८ तावदागत्य विद्याभिर्भणितोऽसौ नराधिपः । आदेशं देहि भो देव सर्वकार्यकरं भुवि ॥५९ तबलाद्रूपमादाय तद्विद्याधरगोचरम् । हिरण्यवर्म तद्भार्या प्रभावत्योः परिस्फुटम् ॥६० सुमेर्वादौ विधायाशु यात्रां पुण्यकरां शुभाम् । कैलाशमागतौ तौ वन्दितुं जिनपुङ्गवान् ॥६१ भरतेशकृतान् तत्र चतुर्विशतिसद्गृहान् । पूजयित्वा स्थिती यावत्पृथग्भूतो परस्परम् ॥६२ लिये अतिशय लोभ करते हैं उनके लोभ नामका चौथा अतिचार लगता है ॥५०॥ जो निर्दय होकर न्यायमार्गको छोड़कर (शक्तिसे अधिक) बोझा लाद देते हैं उनके अतिभारारोपण नामका अतिचार लगता है ॥५१॥ हे मित्र । यह परिग्रहका परिमाण करना शुभगतिरूपी रत्नोंका पात्र है, नरकरूपी घरको बन्द करनेके लिये किवाड़ोंके समान है, धर्मरूपी रत्नोंकी खानि है, अशुभरूप वृक्षोंको उखाड़नेके लिये वायुके समान है और लोभरूपी हाथीको मारने के लिये सिंह है । इसलिये तू साररूप सन्तोषको धारणकर परिग्रहपरिमाण व्रतको धारण कर ॥५२॥ जो बुद्धिमान् इस परिग्रहपरिमाण व्रतको धारण करता है वह देवोंके द्वारा आदर सत्कार पाकर अनुक्रमसे स्वर्गमोक्षके सुख प्राप्त करता है ।।५३॥
प्रश्न-हे स्वामिन् ! जिसने इस व्रतको पालनकर इस लोकमें भी देवोंके द्वारा आदर सत्कार प्राप्त किया उसकी कथा कृपाकर निरूपण करिये ॥५४॥ उत्तर-हे श्रावकोत्तम ! तू मनके अन्य सब संकल्प छोड़कर सुन ! में पुण्य बढ़ानेवाली राजा जयकुमारकी कथा कहता हूँ ॥५५।। कुरुजांगलदेशके हस्तिनापुर नामके शुभ नगरमें पुण्य-कर्मके उदयसे कुरुवंशी राजा सोमप्रभ राज्य करता था ॥५६।। उसके पुत्रका नाम जयकुमार था उसने परिग्रहपरिमाणका व्रत लिया था और स्त्रीपरिमाणमें उसके केवल सुलोचना ही थी, और सबका त्याग था ॥५७॥ किसी एक दिन जयकुमार और सुलोचना दोनों दम्पती अपने पहिले विद्याधर भवकी कथा कहकर अनेक प्रकारके दृश्य देखते हए बैठे थे कि इतने में ही पहिले भवकी विद्याने आकर कहा कि हे राजन् ! मुझे आज्ञा दीजिये, में इस संसारमें आपके सब काम कर सकूँगी ॥५८-५९।। उस विद्याके बलसे उन दोनोंने पहिले भवके हिरण्यवर्मा और प्रभावती नामके विद्याधर विद्याघरीका रूप धारण किया ॥६०॥ उन दोनोंने पुण्य बढ़ानेवाली सुमेरुपर्वत आदिकी यात्रा की और फिर चौबीस तीर्थंकरोंकी वन्दना करनेके लिये वे दोनों कैलास पर्वतपर आये ॥६१॥ वहाँपर महाराज भरतने जो चौबीस तीर्थंकरोंके जिन भवन बनवाये थे उनकी वन्दना की और फिर वे दोनों अलग अलग स्थानपर जा विराजमान हुए ॥६२।। इसी समय सुधर्मा सभामें सौधर्म इन्द्रने जयकुमारके सन्तोषव्रतको
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