________________
प्रश्नोत्तरश्रावकाचार तत्प्रस्तावे जयस्यैव प्रशंसा हि कृता वरा । सौधर्मस्वर्गनायेन जाता सन्तोवसव्रतात् ॥६३ परीक्षितुं जयं तत्रागतो रविप्रभाह्वयः। परिवारेण संयुक्तो देवो दिव्यगुणान्वितः ॥६४ हावभावविलासाढचं लावण्यरसद्धितम् । रूपं कृत्वा गुणोपेतं खेचरीगोचरं वरम् ॥६५ चतुर्विलासिनीभिश्च सह प्रागत्य शीघ्रतः । स्त्रीरूपधारिणा तेन भणितोऽसौ नरेश्वरः ॥६६ स्वयंवरे कृतो येन संग्रामोपि त्वया सह । रौद्रः सुलोचनाया हि भीरुभीतिप्रदो हठात् ॥६७ नविद्याधराधीशपतेस्तस्य गुणाकराम् । स्वरूपाख्यां महाराज्ञों तद्विरक्तां सुयौवनाम् ॥६८ महाविद्यान्वितां शीघ्र मामिच्छ पुरुषोत्तम । यदि वाञ्छसि तस्यैव राज्यं च स्वस्य जीवितम् ॥६९ तदाकर्ण्य जयेनोक्तं हे सुन्दरि विरूपकम् । प्रोक्तं त्वयातिनिन्धं च पापसन्तापकरि यत् ॥७० नित्यं स्यान्नियमो मेऽपि परस्त्रीगमनादिके । सुलोचनां विना सर्वा नार्यो मे जननीसमाः ॥७१ तस्माच्छोलवती त्वं च भव नित्यं बुधाचिता । कुत्सितं परिणामं स्वं त्यक्त्वा धर्मव्रतान्विता ॥७२ इत्युक्त्वा संस्थितो यावत्कार्योत्सर्ग विधाय च । चित्तं विधाय तीर्थेशपादमूले गुणाकरे ॥७३ तावत्तथा कतो घोर उपसर्गोऽतिदुस्सहः । हावभावकटाक्षश्च दृढेरालिंगनादिभिः ॥७४ संस्थितोऽकम्पमानोऽसौ महामेरुरिवानिशम् । जित्वा परीषहान् सर्वान् तत्कृतान् घोरदुःखदान् ॥७५ ततोसावुपसंहृत्य मायां वक्ति जयं प्रति । प्रकटीभूय सन्तुष्टस्तत्परोक्षणतोऽमरः ॥७६ त्वं देव ! महतां पूज्यो घोरोऽसि त्वं बुधऽस्तुतः । तव कीर्तिः श्रुतास्माभिः स्वर्गे देवसभादिषु ॥७७ प्रशंसा की ॥६३॥ इसलिये उसकी परीक्षा करनेके लिये दिव्य गुणोंसे सुशोभित ऐसा रविप्रभ नामका देव अपने परिवारके साथ आया ॥६४॥ रविप्रभने हावभाव विलास और लावण्यरससे परिपूरित ऐसा विद्याधरीका उत्तमरूप धारण किया ॥६५॥ तथा चार विलासिनी उसने अपने साथ लीं। इस प्रकार स्त्रीका रूप धारणकर वह शीघ्र ही जयकुमारके पास आया और जयकुमारसे कहने लगा कि हे नरेश्वर ! जिस विद्याधरोंके स्वामी राजा नमिने सुलोचनाके स्वयम्बरमें तेरे साथ कातरोंको भय उत्पन्न करनेवाला भयंकर युद्ध किया था उसकी में समस्त गुणोंसे परिपूर्ण स्वरूपा नामकी महारानी हूँ, में इस समय अत्यन्त युवती हूँ, मेरे पास अनेक विद्याएं हैं और मैं महाराज नमिसे विरक्त हो गई हूँ। इसलिये हे पुरुपोत्तम ! यदि आप महाराज नमिका राज्य चाहते है और अपनेको जीवित रखना चाहते हैं तो मुझे स्वीकार कीजिये ।।६६-६९।। उस बनी हुई विद्याधरीकी यह बात सुनकर जयकुमारने कहा कि तूने यह बड़ी ही प्रतिकूल, निंद्य, पाप सन्तापको उत्पन्न करनेवाली, और बुरी बात कही ॥७०।। मेरे परस्त्रीगमन करनेका सदाके लिये त्याग है। सुलोचनाके बिना अन्य स्त्रियां मेरे लिये माताके समान हैं ।।७१॥ इसलिये हे देवी! तू भी कुत्सित परिणामोंको छोड़, धर्म और व्रतोंको धारण कर तथा विद्वानोंके द्वारा पूज्य होती हुई शीलवती हो ॥७२॥ इतना कहकर जयकुमार गुणोंकी खानि और ध्यानके मूल कारण ऐसे श्री तीर्थकर भगवानको हृदयमें विराजमान कर कायोत्सर्ग धारणकर खड़ा हो गया ॥७३॥ तब उस देवने कोई उपाय न देखकर हावभाव कटाक्षोंके द्वारा तथा दृढ़ आलिंगनोंके द्वारा अत्यन्त असह्य और घोर उपसर्ग किया ॥७४|| जयकुमार मेरु पर्वतके समान अचल होकर खड़ा रहा, उसने घोर दुःख देनेवाली और त्याग करनेयोग्य ऐसी समस्त घोर परीषह सहन की १७५|सब उस देवने अपनी माया संकोची और प्रगट होकर जयकुमारसे कहा कि मैं तेरी परीक्षासे अत्यन्ती सन्तुष्ट हुआ है ॥७६॥ हे देव ! आप महा पुरुषोंके द्वारा भी पूज्य हैं, धीर वीर हैं, विद्वानोंके द्वारा स्तुति करने योग्य हैं, हमने आपको कोर्ति स्वर्गमें भी देवोंकी सभामें सुनी है । हे देव ! सौधर्म
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org