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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार अर्थात्सञ्जायते चिन्ता रक्षणादिकृताङ्गिनाम् । इहामुत्र महादुःखं सर्व श्वभ्रादियोनिजम् ॥३९ किमत्र बहुनोक्तेन सर्वदुःखाकरं धनम् । दानं विना गृहस्थानां शोकक्लेशाशुभप्रवम् ॥४०
इति मत्वा हि भो मित्र ! हत्वा लोभं कुकीर्तिवम् । नीत्वा सन्तोषजं राज्यं भज संख्यां धनादिके ॥४१ गणधरमुनिनिन्द्यं सर्वदानादिवज्र, दुरितकुवनमेघ धर्मकल्पद्रुमाग्निम् ।
नरककुगतिमार्ग मुक्तिगेहे कपाट, सुभग त्यज कुलोभं सङ्गसंख्यां विधाय ॥४२ पञ्चातिचारनिर्मुक्ताः सत्परिग्रहसंख्यया । प्राप्य षोडशमं नाकं क्रमाद्यान्ति शिवं बुधाः ॥४३ भट्टारक ! व्यतीचारानादिश व्रतशुद्धये । पञ्चमाणुव्रतस्यैव कृपां कृत्वा शुभाय मे ॥४४ एकाग्रचेतसा सर्वान् शृणु श्रावक ! तेऽधुना । कथयामि व्यतीपातान् त्याज्यान् व्रतमलप्रदान् ॥४५ स्यादतिवाहनं चादौ ततोऽतिसंग्रहो भवेत् । अतिविस्मयोऽतिलोभश्चातिभाराधिरोपणम् ॥४६ कुर्वन्ति वृषभादीनामतिरेकेण वाहनम् । मार्गे प्रमाणतो लोभात् ये विक्षेपं भजन्ति ते ॥४७ अत्यन्तसंग्रहं योऽपि धान्यादीनां करोति वै । लोभावेशवशात्तस्य व्यतीपातो बुधैः स्मृतः ॥४८ क्रयाणकं च विक्रीय मूलतो गृहणे तथा । लोभाद् धते विषादं यस्तस्य स्यादतिविस्मयः ॥४९ लब्धेऽप्यर्थे विशिष्टे च तृष्णां कुर्वन्ति ये पुनः । लोभार्थ लोभतस्तेषां व्यतिचारो मलप्रवः ॥५० है, पुन: आये हुए धनकी बड़े दुःखसे रक्षा होती है और इसके चले जानेपर भी मनुष्योंको दुःख ही होता है इस प्रकार सब जगह दुःख देनेवाले इस धनको धिक्कार हो ॥३८॥ धन प्राप्त हो जानेसे मनुष्योंको उसकी रक्षा आदिकी चिन्ता उत्पन्न हो जाती है इसके सिवाय वह परलोकमें भी नरक आदि दुर्गतियोंके महा दुःख देनेवाला है ॥३९॥ बहुत कहनेसे क्या लाभ है, थोड़ेसे में इतना समझ लेना चाहिये कि यह धन समरत दुःखोंकी खानि है और विना दानके गहस्थोंको अनेक प्रकारके शोक क्लेश और दुखोंको देनेवाला है ॥४०॥ यही समझकर हे मित्र ! सन्तोषरूपी सार पदार्थको धारणकर अपकीर्ति देनेवाले लोभको नाशकर और धनादिककी संख्या नियत कर ॥४१॥ हे मित्र ! देख, यह कुलोभ गणधर और मुनियोंके द्वारा निन्ध है, दानादिक शुभ कार्योंसे रहित है, पापरूपी वनको बढ़ानेके लिये मेघ है, धर्मरूपी कल्पवृक्षको जलानेके लिये अग्नि है, नरकादिक दुर्गतियोंका मार्ग है और मुक्तिरूपी घरको बन्द करनेके लिये किवाड़के समान है इसलिये तू परिग्रहका परिमाण नियत कर इस कुलोभका त्यागकर ॥४२॥ जो पुरुष पाँचों अतिचारोंको छोड़कर परिग्रहपरिमाण व्रतको धारण करता है वह बुद्धिमान् सोलहवें स्वर्गके सुख भोगकर अन्तमें मोक्ष प्राप्त करता है ॥४३॥ प्रश्न हे प्रभो! कृपाकर इस व्रतको शुद्ध करनेके लिये इस व्रतके पाँचों अतीचारोंको कहिये ॥४४॥ उत्तर-हे श्रावकोत्तम ! तू चित्त लगाकर सुन । इस व्रतमें मल उत्पन्न करनेवाले और त्याग करने योग्य अतिचारोंको कहता हूँ ॥४५।। अतिवाहन, अतिसंग्रह, विस्मय, लोभ और अतिभारारोपण ये पाँच परिग्रहपरिमाणके अतिचार हैं ॥४६॥ घोड़े बैल आदिको उनकी शक्तिसे अधिक चलाना और मार मारकर चलाना अतिवाहन नामका पहिला अतिचार है ॥४७॥ लोभके वश होकर धन धान्यादिकका अतिशय संग्रह करना अतिसंग्रह नामका दूसरा अतिचार है ॥४८॥ जो खरीनेयोग्य पदार्थ बेच दिया हो अथवा उस खरीदने योग्य पदार्थकी प्राप्ति ही न हुई हो उस समय लोभके वश होकर विषाद करना अतिविस्मय नामका तीसरा अतीचार है ॥४९॥ जो धन प्राप्त हो जानेपर भी उसको देने वा खर्च करने में अत्यन्त तृष्णा करते हैं अथवा धनकी प्राप्तिके
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