Book Title: Shravakachar Sangraha Part 2
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 360
________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार 1 दुर्गमार्गे हठानीतं सर्वद्रव्यमुपार्जितम् । तस्करे दुःखदैस्तस्य पूर्वपापविपाकतः ॥ १९१ एकदा निर्धनेनैवागच्छतागृहमात्मनः । कुमार्गे गोकुले तक्रं तेन पीतुं हि याचितम् ॥९२ तस्मिन्पीते समालोक्य कूचें लग्नं कथंचन । स्वल्पं सुनवनीतं च गृहीत्वा तेन चिन्तितम् ॥९३ प्रभविष्यति मेऽनेन कालेनैव धनादिकम् । तृणकुट्यां स्थितेनैव सद्व्यवसायहेतवे ॥९४ इति सञ्चित्य तत्रैव स्थितोऽसौ तस्य प्राप्तये । तावल्लोकैः कृतं नाम हि श्मश्रुनवनीतकम् ॥९५ अथैकदा घृते जाते कालात्प्रस्थप्रमाणके । संस्तरे शीतकाले स कुटीद्वारे ससंकटे ॥९६ पादान्ते स तृणं धृत्वा वह्न च घृतभाजनम् । मानसे चिन्तयत्येव महारम्भादिसंग्रहम् ॥९७ इदानों सतेनाहं करोमि क्रयविक्रयम् । कार्पासादिभवं पश्चात्सार्थवाहो भवामि वै ॥९८ अश्वहस्त्यादिसल्लक्ष्म्या सामन्तादिपदं ततः । राज्याधिराजजं प्राप्य पदं च व्यवसायतः ॥९९ क्रमेण चक्रवर्ती च भविष्यामि न संशयं । अवाप्स्यामि तदा भोगान् सर्वेन्द्रियसुखप्रदान् ॥१०० यदा सप्ततले रस्ये प्रासादे शयने शुभे । श्रीरत्नं प्रोपविष्टं मे पादान्ते शुभलक्षणम् ॥१०१ महारूपान्वितं सारं मुष्टया पादो गृहीष्यति । पादमर्दनमाकर्तुं भोगतत्परमानसम् ॥१०२ न जानासि त्वमेवाहं भणित्वेति तदा स्वयम् । पावेन ताडयिष्यामि स्नेहेनाति वरं हि तत् ॥१०३ जाकर उसने द्रव्य भी कमाया परन्तु पापकर्मके उदय होनेसे मार्ग में ही दुःख देनेवाले चोरोंने उसका सब धन लूट लिया ||२१|| इस प्रकार अत्यन्त निर्धन होकर वह अपने घरको आ रहा था । मार्ग में किसी एक दिन उसने गवालियेके घरसे पीनेके लिये छाछ माँगी ॥९२॥ छाछ के पी लेनेपर उसने देखा कि उस छाछमेंके मक्खनके कुछ कण मूछोंमें लग गये हैं । उन्हें देखकर उसने अपने हृदय में विचार किया कि थोड़े दिन इसी प्रकार छाछ पी पीकर मक्खनके कण इकट्ठे करने से व्यापार करने योग्य धन हो सकता है इसलिये कुछ दिनतक घासकी एक झोंपड़ी बनाकर यहाँ ही रहना चाहिये ||९३ - ९४ || इस प्रकार विचारकर वह वहीं एक झोंपड़ी बनाकर उसीमें रहने लगा । वह प्रतिदिन मूछों में लगे हुए मक्खनको इकट्ठा करता था इसलिये लोगोंने उसका नाम श्मश्रुनवनीत रखलिया था ||१५|| कुछ समय पाकर इकट्ठा होते होते वह घी लगभग एक सेरके हो गया तब किसी एक दिन शीतकालके समय उस छोटी झोंपड़ीको बन्दकर वह लघुदत्त दरवाजेकी ओर पैरकर सो गया । दरवाजेके पास ही घीका वर्तन रक्खा हुआ था और उसके पास ही शीतसे बचने के लिये अग्नि जला रक्खी थी। इस प्रकार लेटे लेटे वह बड़े भारी आरम्भ और संग्रहका विचार करने लगा ||९६ - ९७|| वह सोचने लगा कि अब मैं इस घीसे कपास आदिका व्यापार कर सकता हूँ । इस प्रकार धीरे धीरे व्यापार करते करते बाहरसे माल लानेवाला ले जानेवाला बड़ा व्यापारी हो जाऊँगा ||१८|| तदनन्तर मेरे हाथी, घोड़े आदिकी विभूति हो जायगी । बड़े बड़े सामान्त हो जायंगे, राज्य मिल जायगा और फिर इसी व्यवसायसे राजाधिराज पद मिल जायगा ||१९|| तदनन्तर में चक्रवर्ती हो जाऊँगा इसमें कोई सन्देह नहीं । फिर मुझे समस्त इन्द्रियोंके सुख देनेवाले भोगोपभोग प्राप्त हो जायंगे || १००|| तब मैं सतखने महा मनोहर शुभ राजभवनमें सोऊंगा, अनेक शुभ लक्षणोंसे सुशोभित स्त्री-रत्न मेरे पैरोंके पास बैठेगी ॥ १०१ ॥ वह बड़ी रूपवती होगी और हृदयमें भोगों की लालसा करती हुई वह मेरे पैर दबानेके लिये अपने हाथों से मेरे पैर पकड़ेगी ॥१०२॥ | तब में बड़े प्रेमके साथ उस सुन्दर स्त्रीको यह कहकर स्वयं लात मारूंगा कि अरी, यह क्या करती है, तू नहीं जानती कि मैं स्वयं तेरे रूपमें मिल गया हूँ ? Jain Education International ३२७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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