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प्रश्नोत्तरवावकाचार
३०३ यः परश्रियमादत्ते प्रपञ्चरचनैः परैः । स्तोकां बहुतरां तस्य गृहात्सा याति निश्चितम् ॥१३ चौरं विज्ञाय सन्तोऽपि घ्नन्ति तमिवानिशम् । परवस्त्वादिकेऽत्यन्तलोलुपं कपटान्वितम् ॥१४ न्यायमार्गात्समायाति लक्ष्मीर्लोकत्रये स्थिता । पुण्याढयस्य गृहं सर्वा महापुण्यविधायिनी ॥१५ अन्यायाचरणात्सोपि स्थिता गेहात्प्रयाति वै । पुण्यहीनमनुष्यस्य धर्मवतां गृहम्प्रति ॥१६ स्थितिं करोति सा गेहे चौरव्यापारतो यदि । भवन्ति किं धनाढया न दुष्टभिल्लादितस्कराः ॥१७ सदोषं व्यवसायं यो विधत्ते धनहेतवे । सङ्कटं तं समायाति दारिद्रं च भवे भवे ॥१८ येन केनाप्युपायेन परद्रव्यं हरन्ति ये । हस्तच्छेदादिकं प्राप्य ते श्वभ्रं यान्ति सप्तमम् ॥१९ नष्टे धने भवेद् दुःखं यादृशं मरणेजिनाम् । तादृशं न च लोकेस्मिन्नत्यन्तं प्राणवल्लभे ॥२० अञ्जलिद्वयधान्यायं कः सुधीः पापमाचरेत् । चौर्यकूटप्रयोगादिजातं दुर्गतिदुःखदम ॥२१ कुटुम्बादिप्रभोगार्थ ये हरन्ति परश्रियम् । तेऽपि त्यक्त्वा कुटुम्बं तन्मज्जन्ति श्वभ्रसागरे ॥२२ यदर्थ धनमादत्ते कूटोपायात् शठो नरः । तत्कुटुम्बं विना श्वभ्रे भुङ्क्ते दुखं स केवलम् ॥२३ इति मत्वा परस्वं भो त्यज सर्पविषादिवत् । अभक्ष्यमिव चासारं पापक्लेशायशः प्रदम् ॥२४ त्यक्त्वा सर्वानतीचारानस्तेयं यो व्रतं चरेत् । सन्तोषात्सोपि सम्प्राप्य स्वगं याति क्रमाच्छिवम् ॥२५
और भाई बन्धु आदि सब कुटम्बी उसे छोड़ देते हैं ॥१२॥ जो अनेक प्रकारके छल कपटोंसे दूसरे का थोड़ा भी धन लेता है उसके घरका सब धन नष्ट हो जाता है इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥१३॥ दूसरोंके वस्त्र आदिकी लालसा रखनेवाले कपटी चोरको चोर समझकर सज्जन लोग भी तृणके समान उसे मारते हैं ॥१४॥
महापुण्यको प्रगट करनेवाली और तीनों लोकोंमें रहनेवाली ऐसी समस्त लक्ष्मी नीतिमार्गसे ही पुण्यवानके घर आ जाती हैं ॥१५|| अन्यायरूप आचरण करनेसे घरमें रहनेवाली लक्ष्मी भी उस पुण्यहीन मनुष्यके घरसे निकलकर धर्मात्माके घर चली जातो है ॥१६॥ यदि चोरीके व्यापारसे ही लक्ष्मी घरमें रहने लगे तो दुष्ट भील आदि चोर लोगोंके घर ही बहुतसा धन क्यों नहीं दिखाई देता ॥१७॥ जो पुरुष केवल धनके लिये सदोष व्यापार करता है वह कोढ़ी होता है और भवभवमें दरिद्री होता है ।।१८॥ जो पुरुष जिस किसी भी उपायसे दूसरेके धनको हरण करते हैं उनके हाथ पैर आदि अंग उपांग काटे जाते हैं और अन्तमें उन्हें सातवें नरकके दुःख भोगने पड़ते हैं ।।१९।। संसारी जीवोंको धन नष्ट होनेपर अथवा मरनेपर जैसा दुःख होता है वैसा दुःख इस संसारमें और कहीं नहीं होता, क्योंकि प्राण और धनके समान और कोई प्रिय है ही नहीं ॥२०॥ अरे ऐसा कौन बुद्धिमान है जो केवल दो मुट्ठी धान्यके लिये चोरी ठगी आदिसे होनेवाले और अनेक दुर्गतियोंके दुःख देनेवाले पापोंको करे ॥२।जो कुटुम्बी लोगोंके उपभोगके लिये दूसरोंका धन हरण करते हैं वे भी कुटुम्बको छोड़कर नरकरूपी महासागरमें गोते खाते हैं ॥२२॥ यह प्राणी जिस कुटुम्बके लिये धन लेता है वह कोढ़ आदि अनेक रोगोंको भोगता है, तथा विना कुटुम्बके केवल अकेला ही नरकके दुःख भोगता है ॥२३॥ यही समझकर हे भव्य! तू विषले सर्पके समान अथवा अभक्ष्य भक्षणके समान असारभूत तथा पाप क्लेश और अपयशको देनेवाले दूसरेके धन ग्रहण करनेका त्यागकर ॥२४॥ जो प्राणी सन्तोषपूर्वक सब अतीचारोंको छोड़कर इस अचौर्यव्रतको पालन करता है वह स्वर्गादिक सुख पाकर अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करता है. ॥२५॥
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