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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार
अदत्तं यो न गृह्णाति स स्यात्पूज्योऽमरैरिह । यः परस्वं समादत्ते बधबन्धादिकं भजेत् ॥३८ योगिन् ! येन फलं प्राप्तं चादत्तविरतिव्रतात् । तद्विनेह महादुःखं तयोः कथां निरूपय ॥३९ एकचित्तेन भो मित्र ! शृणु तेऽहं कथाद्वयम् । वक्ष्ये धर्माय मुक्त्यै वा चौर्याचौर्यान्वितात्मनोः ॥४० अदत्तपरिहारेण वारिषेणो नृपात्मजः । इहैव पूजितो देवैर्जनै राजादिभिः पुनः ॥४१ ज्ञेया तस्य कथा दक्षैः सा स्थितीकरणे गुणे । निरूपिता मया पूर्वं धीरवीरस्य साम्प्रतम् ॥४२ वत्सदेशे च कौशांबीपुरे सिंहरथो नृपः । अभवत्पुण्ययोगेन राज्यस्य विजयाभिधा ॥४३ तत्रैव तस्करो दुष्टो धत्ते पञ्चाग्निसाधनम् । तापसत्वं समादाय कौटिल्येनातिपापधीः ॥४४ शिक्थ्यमारुह्य न्यग्रोधे परभूमि स्पृशन्न च । चौयं विधाय रात्रौ च दिने तिष्ठति प्रत्यहम् ॥४५ एकदा नगरं मुष्णं समाकण्यं महाजनात् । नृपेण भणितो रोषात्कोट्टपालः समागतः ॥४६ त्वं सप्तदिनमध्ये रे चौरं शीघ्रं समानय । निजं वा मस्तकं देहि चौरव्यापारयोगतः ॥४७ चौरं सोऽलभमानो हि तलारश्चिन्तयान्वितः । ब्राह्मणेनापराह्णेऽपि केनचित्प्रार्थितोऽशनम् ॥४८ तेनोक्तं शृणु भो विप्र ! सन्देहो वर्तते मम । प्राणानां भोजनं त्वं च कथं प्रार्थयसि ध्रुवम् ॥४९ श्रुत्वा तद्वचनं विप्रो बभाषे तं प्रति स्वयम् । कुतस्ते प्राणसन्देहो जातोऽद्येव निरूपय ॥५०
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होता है और जो विना दिये हुए दूसरेके धनको ले लेता है वह बन्धन आदिके अनेक दुःखोंको भोगता है ||३८||
प्रश्न - हे प्रभो ! अचौर्य व्रतके पालन करनेसे किसको उत्तम फल मिला है तथा चोरो करने से किसको दुःख मिला है उन दोनों की कथा कृपाकर मुझसे कहिये ||३९|| उत्तर - हे मित्र ! त् चित्त लगाकर सुन। में धर्म बढ़ानेके लिये अथवा मोक्ष प्राप्त करनेके लिये दोनोंकी कथा कहता हूँ ||४०|| बिना दिये हुए पदार्थोंका त्यागकर देनेसे (ओचर्य व्रत पालन करनेसे) राजपुत्र वारिषेण इस जन्म में देवोंके द्वारा प्रजाके द्वारा और राजा आदिके द्वारा पूज्य हुआ है || ४१|| इस घीरवीर वारिषेणकी कथा हमने पहिले सम्यग्दर्शनके स्थितिकरण अंगके वर्णन करनेमें कही है, चतुर पुरुषों को वहांसे जान लेना चाहिये ||४२ || अब आगे चोरी करनेवालेकी कथा कहता हूँ । वत्सदेशके कौशांबी नगरमें पुण्यकर्मके उदयसे सिंहरथ नामका राजा राज्य करता था । उसकी रानीका नाम विजया था ||४३|| उसी नगर में एक दुष्ट चोर रहता था वह पापी अपने छल कपटसे दिनमें तपसीका भेष बनाये रखता था, पंचाग्नि तप तपता था और "मैं दूसरेकी भूमिका भी स्पर्श नहीं करता" इस प्रकार प्रगट करता हुआ वह एक वडके पेड़के नीचे छींका टांगकर रहता था । परन्तु वह दुष्ट रात्रिको प्रतिदिन चोरी करता था ||४४-४५॥ प्रतिदिन चोरी होनेके कारण किसी एक दिन सब महाजनोंने मिलकर महाराज से प्रार्थना की कि महाराज, सब नगर लुटा जा रहा है । महाराजने क्रोधित होकर कोतवालको बुलाया और कहा कि तू सात दिनके भीतर या तो चोरको लाकर उपस्थित कर, अथवा चोरी होनेके अपराध में तू अपना मस्तक दे ||४६-४७|| कोतवालने बहुत ढूँढा, परन्तु चोरका पता न चला तब वह बड़ी चिन्तामें पड़ा । वह इसी चिन्तामें डूबा हुआ. था कि इतने में ही सायंकालके समय किसी ब्राह्मणने आकर उससे भोजनकी प्रार्थना को ||४८||
वाल कहा कि हे ब्राह्मण ! यहाँ तो मेरे प्राणोंमें भी सन्देह है और तू मुझसे ही भोजन मांग रहा है ? ||४९|| कोतवालकी यह बात सुनकर वह ब्राह्मण कहने लगा कि तुझे आज अपने प्राणोंका सन्देह क्यों है, तू मुझसे सब कथा कह ॥ ५०॥ इसके उत्तरमें कोतवालने सब हाल कह सुनाया, तब
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