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प्रश्नोतरमावकाचार
२११ एकदा चैत्रसन्मासे दृष्ट्वा राजा गुणान्विताम् । बभूवान्दोलयन्ती ता कामासक्तोऽतिविह्वलः ॥५१ ततोऽपि याचितस्तूर्णं वन्दको मन्त्रिभिः स्वयम् । तदर्थ रूपसम्पन्नां तां पुण्यपरिपाकतः ॥५२ तेनोक्तं यदि मे राजा धर्म गृह्णाति केवलम् । त्यक्त्वा जिनेन्द्रसद्धमं तां ददामि न चान्यथा ॥५३ राज्ञा मूढेन तत्सर्वं कृत्वा साऽपि विवाहिता । कृता पट्टमहादेवी जाता तस्यातिवल्लभा ॥५४ । सुनन्दीश्वरयात्रायामुर्विलारथमद्भुतम् । फाल्गुने सन्महाटोपं वस्त्राभरणभूषितम् ॥५५ आलोक्य भणितं देव तया बुद्धरथोऽधुना । मदीयः प्रथमं पुर्या भ्रमतु धर्महेतवे ॥५६ राज्ञोक्तमस्तु चैवं हि तया निर्मापितो रथः । बुद्धदेवसमोपेतः शृङ्गारादिसमन्वितः ॥५७ ब्रूते तत्रोविलादेवी भ्रमते प्रथम रथः । मदीयो मे तदाहारे प्रवृत्ति व चान्यथा ॥५८ गृहीत्वेति प्रतिज्ञा सा सोमदत्तमुनीशिने । गत्वा क्षत्रियगुहायामूचे सासंन्यासकारणम् ॥५९ प्रस्तावेऽस्मिन्मनेर्वज्रकुमारस्य समागतः । नन्तुं खगा दिवाकरदेवादय इहैव च ॥६० वन्दित्वा मुनिपादौ ते श्रुत्वा धर्म सुखाकरम् । मनीश्वरमुखाज्जातं स्थिताः सद्धर्मवासिताः ॥६१ उक्तं वज्रकुमारेण तामुद्दिश्य प्रभावना। भवद्भिरुविलायाश्च कर्तव्येति रथादिजा ॥६२ ततस्ते तत्र गत्वाशु बुद्धदासीरथः स्वयम् । शतचूर्णीकृतः पुण्याज्जिनधर्मप्रभावकैः ॥६३ पश्चान्नानाविभूत्यापि रथयात्रा सुकारिता । उविलायाः महापुण्यदा खे शोभाकरा परा ॥६४
किसी एक समय चैत्रके महीनेमें अनेक गुणोंसे सुशोभित वह दरिद्रा झूल रही थी, कि राजा पूतगन्ध भी वायु सेवनके लिये उधर आ निकला था। उस समय वह राजा उसको देख कर मोहित और विह्वल हो गया ॥५१॥ दरिद्रा अब रूपवती और लावण्यवती हो गई थी तथा उसके पुण्य कर्मका भी उदय हो गया था इसलिये मन्त्रियोंके द्वारा राजाने वन्दकसे वह कन्या मांगी ॥५२॥ इसके उत्तरमें वन्दकने कहा कि यदि राजा जैन धर्मको छोड़कर केवलामेरा बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेगा तो में यह कन्या राजाको दे दूंगा, बिना इस शर्तको पूरी किये में नहीं दे सकता ॥५३॥ राजा मूर्ख था इसलिये उसने वन्दककी यह शर्त मान ली और उसके साथ विवाह कर लिया। उसने उसे पट्टमहादेवी बनाया और वह उसपर बहुत प्रेम करने लगा ॥५४॥ इधर उविला रानो फाल्गुन महीनेके अष्टाह्निका पर्वमें रथोत्सवकी तैयारी कर रही थी। अनेक प्रकार के वस्त्राभरणोंसे सुशोभित उसका अद्भुत और बहुत बड़ा रथ खड़ा हुआ था ॥५५॥ उसे देखकर दरिद्राने अपने पतिसे (राजासे) कहा कि हे देव ! इस समय बुद्धका रथ भी निकलना चाहिये और धर्मके लिये वह मेरा रथ इस नगरीमें सबसे पहिले निकलना चाहिये ॥५६॥ राजाने भी उसकी इच्छानुसार आज्ञा दे दी। उसका रथ तैयार होने लगा। अब उर्विलाको बड़ो कठिनता पड़ी, क्योंकि पहिले बुद्धका रथ निकलनेके लिये उसका रथ रोक दिया गया था। इसलिये उसने प्रतिज्ञा की कि जब मेरा रथ निकल जायगा तभी में आहार ग्रहण करूंगी अन्यथा नहीं ॥५७-५८॥ ऐसी प्रतिज्ञाकर वह रानी सोमदत्त मुनिराजके समीप क्षत्रिय गुफामें पहुंची और उन मुनिराजसे सब हाल कहा ॥५९|| दैवयोगसे इसी समय वजकुमार मुनिकी वन्दना करनेके लिये दिवाकरदेव आदि बहुतसे विद्याधर आये थे ॥६०॥ वे मुनिराजकी वन्दनाकर और मुनिराजके श्री मुखसे .. सुख देनेवाले धर्मका स्वरूप सुनकर हृदयमें धर्मकी भावना करते हुए बैठे थे ॥६१॥ रानीकी : प्रतिज्ञा सुनकर वजकुमारने उन विद्याधरोंसे कहा कि आपको यह धर्मको प्रभावना अवश्य कर देनी चाहिये और इस उविला-रानीका रथ निकलवा देना चाहिये ॥६२।। मुनिराजकी यह बात सुनकर वे सब विद्याधर नगर पहुंचे और बुद्ध दासी दरिद्राका रथ तोड़ फोड़कर चूर्ण कर डाला।
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