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श्रावकाचार-सग्रह सर्वान् पिण्डीकतान् दोषान् पापदान् पञ्चविंशतिः । सम्यक्त्वस्य त्यज त्वं हि दर्शनस्य विशुद्धये ॥३८ आदर्श मलिने यद्वत्सन्मुखं नैवं दृश्यते । तथाऽशुद्धे च सम्यक्त्वे मुनिश्रीवदनं बुधैः ॥३९ यथा च मलिने चित्ते ध्यानं कर्तुं न शक्यते । काराति तथा हन्तुं सम्यक्त्वे समले जनैः ॥४० निर्मले दर्पणे यवल्लोक्यते वदनं नरैः । तद्वद्दक्षैश्च सम्यक्त्वे मुक्तिश्रीमुखपङ्कजम् ॥४१ इन्द्रधीजिनदेवादिलक्ष्मी वोपजायते । मुनीनां दर्शनेनैव विना ज्ञानवतादिभिः ॥४२ अधिष्ठानं भवेन्मूलं हादीनां यथा तथा । तपोज्ञानवतादीनां दर्शनं कथितं जिनैः ॥४३ दर्शनेन विना ज्ञानमज्ञानं कथ्यते बुधैः । चारित्रं च कुचारित्रं व्रतं पुंसां निरर्थकम् ॥४४ वरं सम्यक्त्वमेकं च व्रतज्ञानतपश्च्युतम् । न पुनः सव्रतं ज्ञानं मिगत्वविषदूषितम् ॥४५ सम्यक्त्वेन विना प्राणी पशुरेव न संशयः । धर्माधर्म न जानाति जात्यन्ध इव भास्करम् ॥४६ सम्यक्त्वेन समं वासो वरं श्वभ्रेऽतिदुःखगे। राजते देवलोके न तद्विनां देहिनां क्वचित् ॥४७ श्वभ्रान्निर्गत्य जीवोऽयं तीर्थनाथो भवेद् ध्रुवम् । सारसम्यक्त्वमाहात्म्याल्लोकालोकप्रकाशकः ॥४८ सम्यक्त्वेन विना स्वर्गात्स्थावेरषु प्रजायते । आर्तध्यानं विधायोच्.मिथ्यात्वाद्धोगतत्परः ॥४९ सम्यक्त्वसदृशो धर्मो न भूतो न भविष्यति । नास्ति कालत्रये लोकत्रितये निश्चितं सदा ॥५०
उलटे शंका आदिक आठ दोष कहलाते हैं ॥३७॥ हे वत्स ! अनेक पापोंको उत्पन्न करनेवाले ये सम्यग्दर्शनके सब दोष मिलकर पच्चीस होते हैं। सम्यग्दर्शनको शुद्ध करनेके लिये तु इन पच्चीसों दोषोंका त्याग कर ॥३८॥ जिस प्रकार मलिन दर्पणमें अपना मुख अच्छा दिखाई नहीं दे सकता उसी प्रकार अशुद्ध (दोष सहित) सम्यग्दर्शनमें विद्वान् लोगोंको भी मुक्तिलक्ष्मीका मुख दिखाई नहीं दे सकता ॥३९।। जिस प्रकार हृदयके मलिन होनेपर ध्यान नहीं किया जा सकता उसा प्रकार सदोष सम्यग्दर्शनसे कर्मरूप शत्र कभी नष्ट नहीं किये जा सकते ।।४०|| जिस प्रकार निर्मल दर्पणमें ही मुख दिखाई देता है उसी प्रकार चतुर मनुष्योंको निर्मल सम्यग्दर्शन में ही मुक्ति लक्ष्मीका मुखरूपी कमल दिखाई देता है ।।४१।। मुनियोंको विना ज्ञान और बिना व्रतादिकोंके केवल सम्यग्दर्शनसे ही इन्द्रकी विभूति तथा तीर्थकरकी विभूति प्राप्त हो जाती है ।।४।। जिस प्रकार मकानका आधार उसकी जड (नीव) है उसी प्रकार तप, ज्ञान, व्रत आदि सवका आधार सम्यग्दर्शन है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेवने कहा है ॥४३।। विद्वान् लोग विना सम्यग्दर्शन के ज्ञानको मिथ्याज्ञान कहते हैं, चारित्रको कुचारित्र कहते हैं और मनुष्योंके सब व्रतोको निरर्थक बतलाते हैं ॥४४॥ विना व्रत, तप, ज्ञान और श्रुतके अकेला सम्यग्दर्शन तो अच्छा, परन्तु विना सम्यग्दर्शनके व्रत तप ज्ञान और श्रुत अच्छे नहीं, क्योंकि विना सम्यग्दर्शनके अकेले तप व्रत ज्ञान श्रुत आदि मिथ्यात्वरूपी विषसे दूषित हो जाते हैं ॥४५।। इसमें कोई सन्देह नहीं कि विना सम्यग्दर्शनके यह प्रापी सर्वथा पशु ही है क्योंकि जिस प्रकार जन्मका अन्धा पूरुष सूर्यको नहीं जानता उसी प्रकार विना सम्यग्दर्शनके यह प्राणी धर्म अधर्मको भी नहीं जान सकता है ॥४६।। यदि सम्यग्दर्शनके साथ साथ अत्यन्त दुःख देनेवाले नरकमें भी निवास करना पड़े तो भी अच्छा परन्तु विना सम्यग्दर्शनके स्वर्गलोकमें शोभायमान होना भी अच्छा नहीं ।।४७।। क्योंकि इस सारभूत सम्यगदर्शनके माहात्म्यसे यह प्राणी नरकसे निकलकर लोक अलोकको प्रकाशित करनेवाला तीर्थकर होता है, परन्तु विना सम्यग्दर्शनके भोगों में तत्पर रहनेवाला स्वर्गका देव भी आर्तध्यानमें लीन होकर स्थावर जीवोंमें आ उत्पन्न होता है ॥४८-४९।। सदा कालसे यह निश्चित चला आ रहा है कि तीनों काल और तीनों लोकोंमें सम्यग्दर्शनके समान कल्याण करनेवाला धर्म आज तक न
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