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श्रावकाचार-संग्रह
ज्ञात्वा भूपं हि तद्भक्तं गत्वा पद्मोऽभिप्रार्थितः । पूर्व वैरं मुनीन्द्राणां वधाय दुष्टचेतसा ॥३७ अस्माकं देहि भो देव राज्यं सप्तदिनान्वितम् । तस्मै दत्वा तु स राजा प्रविश्यान्तःपुरे स्थितः ॥ ३८ आतापनं गिरौ कायोत्सर्गेणापि स्थितान् मुनीन् । बलिनावेष्ट्य संवृत्या कृत्वा सन् मण्डपं पुनः ॥३९ यज्ञः कर्तुं समारब्धो नरमेधसमाह्वयः । श्वभ्रतिर्यक्फलोपेतो धर्मध्वंसकरोऽपदः ॥४० अस्थिचर्मादिजैर्धृम्रैस्तथा जीवकलंवरैः । मारणार्थं मुनीन्द्राणामुपसर्गं करोति सः ॥४१ आदाय मुनयो धीराः संन्यासं द्विविकल्पजम् । त्यक्तदेहाः स्थिताः सर्वे निश्चलाङ्गा स्थिराशयाः ॥४२ अथापि मिथिलाख्यायां नगर्यां निर्गतो बहिः । अर्द्धरात्रौ स्वयं सागरचन्द्राचार्य सुसंज्ञकः ॥४३ तेनाकाशे समालोक्य नक्षत्रं श्रवणं शुभम् । कम्पमानं परिज्ञायावधिज्ञानेन तत्क्षणम् ॥४४ उक्तं हा ! हा ! मुनीन्द्राणामुपसर्गोऽति वर्तते । समस्त संगत्यक्तानां दुष्करो भीरुभीतिदः ॥४५ तच्छ्र ुत्वा पुष्पदन्ताख्यक्षुल्लकेन प्ररूपितम् । विद्याधरेण भो स्वामिन् क्व स केषां प्रवर्तते ॥४६ उक्तं तद्गुरुणा वत्स हस्तिनागपुरे शुभे । वर्ततेऽकम्पनाचार्यादीनां संज्ञानशालिनाम् ॥४७ तेनोक्तं भगवन् सोऽद्य कथं शीघ्रं विनश्यति । उपसर्गो महांस्तेषां यतोनां त्यक्तदेहिनाम् ॥४८ विष्णुकुमारसंज्ञश्च गिरौ धरणिभूषणे । सद्विक्रिर्याद्धसम्पन्नो मुनिर्नाशयितुं क्षमः ॥४९
से राग, द्वेष, मद, उन्माद, भय, शोक आदि सब दोषोंसे रहित उन मुनिराज का आना बलि मंत्रीने जान लिया । राजा पद्मकुमारको मुनिराजका भक्त जानकर बलि मंत्रीने उसके पास जाकर प्रार्थना की कि हे महाराज ! हमें पहिले दिये हुए वर के बदले सात दिनका राज्य दे दीजिये । इस प्रकार उस दुष्टने मुनियोंको मारनेके लिये वर माँगा । राजा वचन दे चुका था इसलिये वह लाचार होकर सात दिनके लिये बलिको राज्य देकर अन्तःपुरमें चला गया ।।३६-३८।। वे मुनिराज किसी पर्वतपर कायोत्सर्ग के द्वारा आतापनयोग धारण किये हुए विराजमान थे, उन सबको उस दुष्टने घेर लिया और सब स्थानके ऊपर एक मण्डप बना डाला ||३९|| फिर उस दुष्टने नरक निगोदके दुःख देनेवाला और धर्मको सर्वथा नाश करनेवाला नरमेध यज्ञ (जिसमें मनुष्य मारकर हवन किये जाते हैं) करना प्रारम्भ किया ||४०|| उस नीचने मुनियोंको मारने के लिये जीवोंके कलेवरोंका तथा हड्डी चमड़ा आदिका बहुतसा घूँआ क्रिया और ऐसे ही ऐसे और भी अनेक उपसर्ग करने प्रारम्भ किये ||४१ || परन्तु जिनका हृदय निश्चल है, शरीर निश्चल है, जिन्होंने शरीर से ममत्व छोड़ दिया है और जो अत्यन्त धीरवीर हैं ऐसे वे मुनिराज उभय विकल्पात्मक (यदि इस उपद्रवसे बचेंगे तो अन्नजलादिक ग्रहण करेंगे, अन्यथा सबका त्याग है) संन्यास धारण कर लिया ||४२||
इसी समय मिथिला नगरीके बाहर आचार्य सागरचन्द्रने आकागमें शुभ श्रवण नक्षत्रको कम्पायमान होते देखा। उसी समय उन्होंने अपने अवधिज्ञानको जोड़ा । अवधिज्ञानसे जानते ही उनके मुँह से निकला कि हा ! हा! समस्त परिग्रहके त्यागी मुनिराजोंको अत्यन्त दुष्कर और भयानक उपसर्ग हो रहा है ॥४३ - ४५|| उनके ये वचन सुनकर पुष्पदन्त नामके क्षुल्लक विद्याधरने पूछा कि हे स्वामिन्! वह उपसर्ग कहाँ और किनको हो रहा है ||४६ || उत्तरमें आचार्य ने कहा कि हे वत्स ! हस्तिनापुर नामके शुभ नगरमें बड़े ज्ञानवान अकंपनाचार्य आदि बहुत से मुनियों को उपसर्ग हो रहा है ॥४७॥ विद्याधरने पूछा कि हे भगवन्! शरीरसे ममत्व छोड़नेवाले उन मुनिराजोंका यह उपसर्ग आज ही शीघ्रताके साथ किस प्रकार नष्ट हो सकता है ||४८|| इसके
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