________________
२५०
श्रावकाचार-संग्रह तच्छ त्वा तां समुद्धीर्य तस्या गेहं प्रविश्य तम् । चौरयित्वार्द्धरात्रौ स कौशलेन विनिर्गतः ॥३७ हारोद्योतेन तं चौरं ज्ञात्वा सोऽपि च तस्करः । ध्रियमाणो बलाद्गेहरक्षकैः कोटपालकः ॥३८ तेभ्यः पलायितुं सोऽसमर्थो हारं स्थितस्य वै । वारिषेणकुमारस्याने धृत्वादृश्यतामगात् ॥३९ कोटपालैस्तथा तं च दृष्ट्वागत्य प्ररूपितम् । श्रेणिकस्य महाचौरो वारिषेणः स्थितोऽधुना ॥४० तेनोक्तं दृष्टिवैकल्यास्थितस्य तस्य मस्तकम् । गृहीध्वं त्यक्तदेहस्य यूयं संकृतमायया ॥४१ क्षिप्तोऽसिस्तेन तत्कण्ठे मातङ्गन स चाजनि । सत्तुष्पदामरूपेग व्रतमाहात्म्ययोगतः ।।४२ तं श्रुत्वातिशयं जातं देवात् निन्दां विधाय स । श्रेणिकेन समागत्य क्षमा स्वकारितोऽप्यसौ ॥४३ याचयित्वाभयं दानं विद्युच्चौरेण तत्क्षणम् । प्रकटीकृत्य स्वं राज्ञो वृत्तान्तं कथितं निजम् ॥४४ वारिषेणो गृहं नेतुं प्रारब्धः सोऽवदत्सुधीः । पाणिपात्रेऽपि भोक्तव्यं गहीतो नियमो मया ॥४५ राजादेशं समादाय गत्वा श्रीगुरुसन्निधौ । सूर्यदेवमुनि नत्वा दीक्षां जग्राह शुद्धधीः ॥४६ राजगृहसमीपे पलाशकूटं स वैकदा। ग्रामं प्रविष्टश्चर्याय सुतीव्रतपसान्वितः ॥४७ श्रेणिकस्य महामन्त्री योऽग्निभूतसमाह्वयः । तत्पुत्रपुष्पडालेन दृष्ट्वा संस्थापितो मुनिः ॥४८ दानं दत्त्वा मुनीन्द्राय सोमिल्लां ब्राह्मणों पुनः । पृष्ट्वानुवजनं कर्तुं निर्गतो मुनिना सह ॥४९
समय सेठ श्रीकीतिके घर जाकर उस हारको लेकर कुशलपूर्वक बाहर निकल आया ॥३७|| परन्तु उस हारका प्रकाश छिप न सका इसलिये कोतवालने और पहरेदारोंने उसे चोर समझकर पकड़ना चाहा। आगे वह चोर दौड़ता जाता था और पीछे-पीछे पहरेदार । वह चोर उसी स्मशानकी ओर दौड़ा और अन्तमें पकड़े जानेके डरसे उस हारको ध्यानमें लीन हुए वारिषेण कुमारके आगे पटककर छिप गया ॥३८-३९॥ कोतवालने वारिषेणको हारके पास इस प्रकार खड़े देखकर महाराज श्रेणिकसे जा कर कहा कि हे महाराज ! कुमार वारिषेण हार चुराकर इस प्रकार स्मशान में ध्यान लगाकर जा खड़ा हुआ है ॥४०॥ कोतवालकी यह बात सुनकर महाराज श्रेणिक को अपने पुत्रपर बहुत ही क्रोध आया और उसने सम्यग्दर्शनसे रहित, मायाचारसे संस्कृत और कायोत्सर्गसे स्थित उस वारिषेणका मस्तक काट डालनेकी आज्ञा दे दी ॥४१॥ आज्ञा होते ही चांडालने जाकर उसके गलेपर तलवार चलाई परन्तु उस व्रतके माहात्म्यसे वह तलवार भी पुष्पमाला होकर उसके गले में जा पड़ी ॥४२॥ पुत्रका यह देवकृत अतिशय सुनकर राजा श्रेणिक भी अपनी निन्दा करता हुआ आया और उसने कुमारसे क्षमा माँगी ।।४३।। विद्युच्चर भी यह सब लीला देख रहा था वह तुरन्त ही आ उपस्थित हुआ और अभयदान माँगकर राजा श्रेणिकसे हार चुरानेकी तथा वारिषेणके आगे डालनेकी अपनी सब कथा कह सुनाई ॥४४।। तदनन्तर महाराज श्रेणिकने कुमार वारिषेणसे घर चलनेके लिये कहा परन्तु वारिषेणने उत्तर दिया कि अब तो मैंने जिन दीक्षा लेकर पाणिपात्र भोजन करनेकी प्रतिज्ञा ले ली है ॥४५।। इस प्रकार अपने पिताकी आज्ञा लेकर वह कुमार वारिषेण सूर्यदेव मुनिराजके समीप गया और उन्हें नमस्कारकर उस बुद्धिमानने उनसे दीक्षा ग्रहण कर ली ॥४६॥ किसी एक दिन तपश्चरण और व्रतोंसे सुशोभित वे वारिषेण मुनि आहारके लिये राजगृहके समीपवर्ती पलासकूट गाँवमें पधारे ॥४७।। वहाँपर महाराज श्रेणिकका महामंत्री अग्निभूत रहता था और उसके पुत्रका नाम पुष्पडाल था । उस पुष्पडालने उन मुनिराजको देखकर शीघ्र ही उनका पड़गाहन किया ।।४८॥ उसने मुनिराजको आहार दिया और फिर अपनी सोमिला ब्राह्मणीसे पूछकर उसकी आज्ञानुसार कुछ दूरतक उन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org