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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार
२३९ तया दत्ता पुनः सिंहनृपाय तेन सा निशि । हठात्सेवितुमारब्धा प्राणिच्छन्ती महावता ॥२५ पुरदेवतया तस्य कृतो घोर उपद्रवः । तस्याः शीलप्रभावेन यष्टिमुष्टचादिभिर्महान् ॥२६ भीतेन तेन सा बाला गृहानिस्सारिता हठात् । आर्थिकया समादृष्टा रुदन्ती कमल श्रिया ॥२७ आकाराच्छाविकां मत्वा नीत्वा पाश्र्वे स्वयं तया। धृतातिगौरवोपेता स्वस्य धर्मादिहेतवे ॥२८ तदा शोकः समुत्पन्नो दुस्सहस्तद्वियोगतः । पितृबन्धुजनादीनां सुखाधमैकनाशकृत् ॥२९ अथानन्तमतोशोकविनाशार्थं जगाम सः । यात्रायै जिनतीर्थानां दृष्टायोध्यापुरी शुभात् ॥३० प्रविष्टो जिनदत्तस्य श्रेष्ठिनो मन्दिरे शुभे । शालकस्यापराले स पुत्री-वार्ता कृता निशि ॥३१ प्रभाते वन्दनाभक्ति कतुं यातः स्वयं पुरोम् । श्रेष्ठी पूजादिसंयुक्तो जिनचैत्यमुनोशिनाम् ॥३२ सा श्रेष्ठिभार्यया चापि श्राविकाकारिता गृहे । दक्षा रसवतों कर्तुं चतुष्कं दातुमप्यहो ॥३३ सर्वं कृत्वा गता सोऽपि स्वस्थानं प्रागतो वणिक् । दृष्ट्वा तं कुरुते तूर्णमश्र पातं विशोकजम् ॥३४ उक्तं तेन यया गेहमण्डनं कृतमप्यहो । तां मम दर्शयानोता जातो मेलापकस्तयोः ॥३५ विधायालिङ्गनं तेन पृष्टा वार्ता वियोगजा । श्रेष्ठिना जिनदत्तेन कृतोऽत्यन्तमहोत्सवः ॥३६ विकारोंसे समझाया, तथापि वह अपने शीलगणसे रंचमात्र भी न डिगी-जिस प्रकार मेरु पर्वत का शिखर निश्चल रहता है उसी प्रकार अत्यन्त धीरवीर वह अनन्तमतो अपने व्रतमें निश्चल रही ।।२४।। अन्त में हारकर कामसेनाने वह राजा सिंहराजको दे दी। उसने भी उसपर अपना चक्र चलाना चाहा और अत्यन्त दृढ़ रूपसे व्रतको पालन करनेवालो और किसीको भी न चाहने वालो उस अनन्तमतीपर किसी एक रात बलात्कार करनेपर उतारू हो गया ॥२५।। परन्तु उसके शोलवतके माहात्म्यसे पहिलेकी वनदेवी आ उपस्थित हुई और उसने लकड़ी घूमोंसे राजाकी खूब ही खबर ली ।।२६।। तब तो राजाको उससे बहुत ही डर लगा और उसने उसी समय उसे अपने घरसे निकाल दिया। चलते-चलते उसे पद्मश्री आर्यिकाके दर्शन हुए। उसे देखकर वह ओर भी रोने लगी और उसे अपनो सब कथा कह सुनाई ॥२७॥ आर्यिकाने अपना धर्म पालन करनेके लिये उसे अच्छी श्राविका जानकर अपने ही पास रक्खा और यथायोग्य आदर सत्कारके साथ उसका निर्वाह करने लगी ॥२८॥
इधर पुत्रीके हरे जानेसे सेठ प्रियदत्तको बहुत ही शोक हुआ। साथमें अन्य कुटुम्बियोंको भी हुआ। उसके शोकसे वे अपना सुख और धर्म सब भूल गये ।।२९।। उस शोकको दूर करनेके लिये सेठ प्रियदत्त तीर्थयात्राको निकला और वन्दना करते हुए अयोध्यापुरीमें आया ॥३०॥ अयोध्यापुरीमें एक जिनदत्त नामका सेठ रहता था, जो प्रियदत्तका साला था, प्रियदत्त उसीके मकान में आकर ठहरा । सायंकालके समय सब कामोंसे निबट लेनेपर प्रियदत्तने जिनदत्तसे अपनी पुत्रीके हरे जानेके समाचार कहे ॥३१॥ प्रात:काल होनेपर'नहा धोकर सेठ प्रियदत्त अयोध्या नगरके जिनमन्दिरोंकी तथा वहाँ ठहरनेवाले मुनियोंकी वन्दना करनेके लिये निकला ॥३२॥ इधर सेठ जिनदत्तकी स्त्रीने पद्मश्री आर्यिकाके समीप रहनेवाली श्राविकाको (अनन्तमतीको) अपने घर भोजन करनेके लिये और चौक पूरनेके लिये बुलाया ॥३३॥ वह श्राविका (अनन्तमती) भोजनकर और चौक पूरकर अपने स्थानको चली गई। इसके बाद वन्दनाकर सेठ प्रियदत्त आया और अनन्तमतीके द्वारा पूरे हुए उस चौकको देखकर और पहिचानकर उसके शोकसे आँसु डालने लगा ॥३४॥ प्रियदत्तने कहा कि जिसने यह चोक पूरा है उसे लाकर मुझे दिखलाओ। तब सेठ जिनदत्तने वह श्राविका (अनन्तमती) बुलवा दी ॥३५।। पुत्रीको देखकर प्रियदत्तने उसे गोदीमें
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