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श्रावकाचार-संग्रह धर्म कृत्वापि यो मूढः ईहते भोगमात्मनि । रत्नं दत्वा स गृह्णाति काचं स्वर्मोक्षसाधनम् ॥३७ इच्छन्ति ये बुधा नित्यं मुक्ति कर्मक्षयं पुनः । धर्म कृत्वा लभेन्नित्यं सुखं श्रीजिनसेवितम् ॥३८ सर्वाङ्गमलसंलिप्ते मुनौ रोगादिपीडिते । घृणा न क्रियते या सा ज्ञेया निविचिकित्सता ॥३९ जिनमार्गे भवेद्भद्रं सर्व नो चेत्परोषहाः । इति ज्ञात्वा हि संत्यागे भावपूर्वा मता हि सा ॥४० रोगादिपीडिता येऽपि तपोवृत्तादिकं सदा । चरन्ति मुनयो धोरास्ते धन्या भुवनत्रये ॥४१ धर्मे देवे मुनौ पुण्ये दाने शास्त्रे विचारणम् । दयक्रियते तद्धि प्रामूढत्वं गुणं भवेत् ।।४२ यो दक्षो देवसद्धर्मगुरुतत्त्वविचारणे । नाराज्यादिकं प्राप्य सः स्यान्मुक्तिस्वयंवरः ॥४३ धर्माधर्म न जानाति मूढो देवादिकं च यः । धर्ममुद्दिश्य पापं सः कृत्वा दुर्गतिमाप्नुयात् ॥४४ सर्मिणां मुनीनां च दृष्ट्वा दोषं विवेकिभिः । छादनं क्रियते यच्च तद्भवेदुपगृहनम् ॥४५ आगतं दोषमालोक्य जिनमार्गस्य ये बुधाः । छादयन्ति न कि तेषां स्वर्गमुक्त्यादिकं भवेत् ॥ जिनधर्मस्य यो निन्द्यो मुनीनां वा करोति वै । निन्दां स पापभारेण मज्जति श्वभ्रसागरे ॥४७ व्रतचारित्रधर्मादिचलतां धर्मदेशिभिः । स्थिरत्वं क्रियते यत्तत् स्थितिकरणमुच्यते ॥४८ श्रीधर्मादौ सदा येऽपि कुर्वन्ति स्थिरतां बुधाः । पुंसां नाकादिकं प्राप्य ते व्रजन्ति स्थिरं पदम् ॥४९
स्वर्गके सुखोंमें, राज्यमें और धनादिमें इच्छाका त्याग कर देना-इनके प्राप्त होनेकी इच्छा न करना सो निःकाङ्क्षित अंग कहलाता है ॥३६॥ जो मूर्ख धर्म सेवन कर अपने भोग सेवन करनेकी इच्छा करता है वह स्वर्ग मोक्षको सिद्ध करनेवाले अमूल्य रत्नको देकर काच खरीदता है ॥३७॥ जो विद्वान् धर्म सेवन कर सदा मोक्ष प्राप्त होनेकी और कर्मोके नाश करनेकी इच्छा करते हैं वे अवश्य ही भगवान् जिनेन्द्रदेवको प्राप्त हुए सुखोंको पाते हैं ॥३८॥ यदि मुनिराजका शरीर रोग आदिसे पीड़ित हो, अथवा उनके सब शरीरपर मैल लगा हो, तो भी उन्हें देखकर घृणा न करना और उनके गुणोंमें प्रेम करना निर्विचिकित्सा अंग कहलाता है ॥३९॥ जिन मार्गमें सब जगह परीषहोंका सहन करना ही उत्तम होता है ऐसा विचारकर घृणाका त्याग देना भावपूर्वक निविचिकित्सा अंग कहलाता है ॥४०॥ जो धीर वीर मुनि रोगादिकसे पीड़ित होकर भी महाव्रतों को पालन करते हैं, घोर तपश्चरण करते हैं इसलिये वे तीनों लोकमें धन्य गिने जाते हैं ॥४१।। जो चतुर पुरुष धर्म, देव, मुनि, पुण्यदान और शास्त्र आदिमें पूर्ण विचार करते हैं उनके यह अमूढदृष्टि अंग होता है ॥४२॥ जो जीव देव, सद्धर्म, गुरु और तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपको विचार करने में चतुर है, वह स्वर्गादिकके सुख और राज्य आदिको पाकर अन्तमें भोक्षलक्ष्मीका स्वामी होता है ॥४३॥ जो मूर्ख धर्म अधर्मके स्वरूपको नहीं जानता, न देव कुदेवोंके स्वरूपको जानता है वह धर्म समझकर अनेक पाप करता है और इसीलिये अन्तमें दुर्गति को प्राप्त होता है ॥४४॥ जो विवेकी पुरुष धर्मात्मा और मुनियोंके दोषोंको देखकर भी ढक देते हैं, प्रगट नहीं करते उसे उपगृहन अंग कहते हैं ॥४५॥ जो विद्वान् जिन मार्गके आये हुए (अज्ञान वा प्रमादसे लगे हुए) दोषोंको देखकर ढक देते हैं उन्हें स्वर्ग मोक्षादिक क्यों नहीं प्राप्त होंगे अर्थात् अवश्य प्राप्त होंगे ॥४६॥ जो निंद्य पुरुष जिन धर्मकी वा मुनियोंकी निन्दा करता है वह पापके भारसे अवश्य नरकरूपी महासागरमें पड़ता है ।।४७|| जो धर्मात्मा पुरुष व्रत चारित्र वा धर्मसे डिगते हुए पुरुषों को फिर उसीमें स्थिर कर देता है, धर्ममें लगा देता है वह उसका स्थितिकरण अंग कहलाता है ।।४८|| जो विद्वान् अन्य मनुष्योंको धर्मादिकमें सदा स्थिर करते रहते हैं वे स्वर्गादिकके सुख
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