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पाँचवाँ परिच्छेद
सुमतीशं जिन नत्वा वक्ष्ये सन्मति-हेतवे । कथामङ्गादिसञ्जातामञ्जनादिभवामहम् ॥१ अङ्गे निःशङ्कताख्येऽपि विख्यातो योऽञ्जनोऽभवत् । कथां तस्य प्रवक्ष्यामि संवेगादिक रामहम् ॥२ दे धन्वन्तरि - विश्वानुलोमो नृप-द्विजात्मजौ। मित्रौ पुण्यवशाज्जातो स्वर्गज्योतिष्कसद्गृहे ॥३ अमितप्रभनामा सः देवोऽभूद्धमंतत्परः । नृपो द्विजः पुनः जातो नीचो विद्युत्प्रभोऽमरः ॥४ यो जैनः स समायातः इतरस्य गृहे पुनः । दातुं सद्दर्शनं सोऽपि न च गृह्णाति मूढधीः ॥५ परस्परं विवादं तो कृत्वा धर्मसमुद्भवम् । पार्श्वे तु धमदग्नेश्च तत्परीक्षार्थमागतौ ॥६ पक्षीरूपं समादाय तपोभङ्गं विधाय च । तस्यैव वचनेनैव प्राप्तौ राजगृहे पुरे ॥७ जिनदत्तो भवेच्छ्रेष्ठी तत्र दर्शनधारकः । व्रते नालङ्कृतो धीमान् दानपूजावितत्परः ॥८ आदाय प्रोषधं रात्रौ कृष्णपक्षेऽष्टमी दिने । कायोत्सर्गं श्मशानेऽसौ ध्यात्वामात्मावलोकतः ॥९ अमितप्रभदेवेन प्रोक्तं तिष्ठन्तु साधवः । दूरे मेऽत्रास्ति शक्तिश्चेद्भ्रातस्ते गृहनायकम् ॥१० इमं ध्यानसमापनं निस्पृहं गुणसागरम् । चालम शीघ्रमागत्य ध्यानाद्धेर्यावलम्बितम् ॥११
में
अपनी बुद्धिको श्रेष्ठ बनाने के लिये में श्री सुमतिनाथ भगवान्को नमस्कार कर आठो अंगोंमें प्रसिद्ध होनेवाले अंजन आदिकी कथा कहता हूँ ॥ १ ॥ सम्यग्दर्शनके प्रथम निःशंकित अंगमें जो मनुष्य प्रसिद्ध हुआ है उसकी संवेग प्रगट करनेवाली कथा में कहता हूँ ॥ २ ॥ एक धन्वन्तरी राजा था । विश्वानुलोम नामका एक ब्राह्मण उसका मित्र था । पुण्यके प्रभावसे धन्वन्तरीका जीव तो मरकर ज्योतिष्क विमानोंमें अमितप्रभ नामका देव हुआ और उस ब्राह्मणका जीव विद्युत्प्रभ नामका देव हुआ । इनमें से अमितप्रभ धर्मात्मा था और अच्छी ऋद्धियाँ उसे प्राप्त थीं तथा विद्युत्प्रभ धर्महीन था और ऋद्धियाँ भी उसे उससे कम प्राप्त हुई थीं ॥ ३-४ ॥ किसी एक दिन अमितप्रभ नामका देव सम्यग्दर्शन ग्रहण करानेके लिये विद्युत्प्रभके घर आया परन्तु उस मूर्खने सम्यग्दर्शन स्वीकार किया ही नहीं ॥ ५ ॥ तदनन्तर वे दोनों धर्मके विषय कुछ विवाद करने लगे और अपने-अपने धर्मकी परीक्षा करानेके लिये यमदग्नि नामके तपस्वीके पास आये ॥ ६ ॥ उन दोनोंने पक्षोका रूप धारण कर लिया और किसी तरह उसके तपश्चरणको भंग कर दिया । फिर वे दोनों देव विद्युत्प्रभकी सलाहसे राजगृह नगरमें आये ॥ ७ ॥ वहाँपर एक जिनदत्त नामका सम्यग्दृष्टी सेठ था, वह बुद्धिमान् व्रतोंसे भी सुशोभित था और दान पूजा आदि कार्योंमें सदा तत्पर रहता था ॥ ८ ॥ उस दिन कृष्ण पक्षकी अष्टमी थी । उस सेठने प्रोषधोपवास किया था और रात्रि में कायोत्सर्ग धारणकर स्मशान में जा विराजमान हुआ था । अकस्मात् वहींपर वे दोनों देव आ निकले और उन्होंने ध्यान करते हुए सेठको देखा ॥ ९ ॥ तब अमितप्रभ देवने कहा कि हमारे साधु लोगोंकी बात तो दूर ही रहो, हे भाई! यदि तुझमें शक्ति है तो ये गृहस्थ सेठ ध्यान लगाये हुए विराजमान हैं, अनेक गुणों के सागर हैं, निस्पृह हैं और अपनी शक्तिके अनुसार ध्यान कर रहे हैं इन्होंको तू ध्यानसे चलायमान कर दे ।। १०-११ ॥ अमितप्रभकी यह बात सुनकर विद्युत्प्रभने वध, बन्धन, हाव, भाव आदि अनेक कुरीतियोंसे असह्य और सहा घोर उपसर्ग करना
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