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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार
कुर्वन्ति ये महामूढा विघ्नं दानवृषादिषु । तपोज्ञानसुपूजादौ स्युस्ते वै श्वभ्रगामिनः ॥५० सद्धमणि मुनौ जैने स्नेहं यत्क्रियते बुधैः । सद्यः प्रसूतगोवत्सं ज्ञेयं वात्सल्यमुत्तमम् ॥५१ 'कुर्वन्ति मुनौ जैने स्नेहं धर्मसुखप्रदम् । तं तीर्थनाथसंभूतिं लब्ध्वा मुक्ति भजन्ति भो ॥५२ पुत्रदारादिसन्ताने स्नेहं कुर्वन्ति येऽधमाः । पापाकरं महादुःखं प्राप्य ते यान्ति दुर्गतिम् ॥५३ ज्ञानोग्रतपसासक्तैः दानपूजादिकारकैः । जिनधर्मस्य माहात्म्यं क्रियते सा प्रभावना ॥५४ कुर्वन्ति प्रकटं ये च जिनधर्मं श्रुतादिभिः । प्रतिष्ठादिकैरधर्मैस्ते भव्या यान्ति निर्वृतिम् ॥५५ प्रभावनादिकं येऽपि घ्नन्ति दुष्टाः सुपुण्यदम् । जिनधर्मस्य ते दु खं प्राप्य श्वभ्रे पतन्ति वै ॥५६ अष्टागसंयुतं सारं समर्थ दर्शनं भवेत् । नाशने कर्मशत्रूणां यथा सैन्ययुतो नृपः ॥ ५७ एकैकमङ्गमासाद्य गताः भव्याः शिवालयम् । सर्वाङ्गसंयुता ये ते कि न मुक्ता भवन्त्यहो ॥५८ अष्टाङ्गपरिपूर्णं हि भज त्वं दर्शनं शुभम् । अनेक कर्मसन्तानस्फोटकं मुक्तिसाधनम् ॥५९ यस्य यच्च फलं यातं स्वामिन्नङ्गादिसेवनात् । तस्य भव्यस्य तत्सर्वं दयां कृत्वा प्रकाशय ॥ ६०
अतुलगुणनिधानं स्वर्गमोक्षैकमूलं, त्रिभुवनपतिसेव्यं कर्मकक्षे कुठारम् । भव जलनिधिपोतं पुण्यतीर्थं पवित्रं, भज रहितकुसङ्ग दर्शनं व्यङ्गयुक्तम् ॥६१ इति श्रीभट्टारक कीर्तिविरचिते प्रश्नोत्तरश्रावकाचारे अष्टाङ्गप्ररूपको नाम चतुर्थः परिच्छेदः ||४||
पाकर अन्तमें मोक्षपदमें जा विराजमान होते हैं || ४९|| जो मूर्ख दान धर्म तप ज्ञान पूजा आदिमें विघ्न करते हैं वे अवश्य ही नरकोंके दुःख भोगते हैं ||५० || जिस प्रकार सद्य: ( हालकी ) प्रसूता गाय अपने बच्चेपर प्रेम करती है उसी प्रकार जो विद्वान् धर्मात्मा भाइयोंमें, मुनियोंमें और जैन धर्ममें प्रेम करते हैं उनका वह सबसे उत्तम वात्सल्य अंग समझना चाहिये ||११|| जो भव्य मुनियोंमें, जैन धर्ममें और धर्मात्माओं में सुख देनेवाले धर्मरूप प्रेमको करते हैं वे तीर्थंकरकी विभूतिको पाकर मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥ ५२॥ जो अधम स्त्री पुत्र आदि सन्तानोंमें पाप उत्पन्न करनेवाला प्रेम करते हैं वे अनेक दुःखोंको पाकर अवश्य हो दुर्गतियोंमें जन्म लेते हैं ॥ ५३ ॥ ज्ञान के द्वारा, उग्र तपश्चरणके द्वारा तथा दान पूजा आदिके द्वारा जैन धर्मका माहात्म्य प्रगट करना प्रभावना अंग है ||५४ || जो भव्य जीव श्रुतज्ञानके द्वारा अथवा पूजा प्रतिष्ठाके द्वारा अथवा अन्य धार्मिक कार्यों द्वारा जिन धर्मकी महिमा प्रगट करते हैं वे अवश्य ही मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥५५॥ जो दुष्ट पुण्य उत्पन्न करनेवाली जिन धर्मकी प्रभावना में विघ्न करते हैं वे अवश्य ही अनेक दुःखोंको पाकर नरकमें पड़ते हैं || ५६|| जिस प्रकार अपनी सेनाके साथ होनेसे राजा अपने शत्रुओं को नष्ट कर देता है उसी प्रकार इन आठों अंगोंसे परिपूर्ण और सारभूत सम्यग्दर्शन समस्त कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट कर देता है ।। ५७|| इस सम्यग्दर्शनके एक-एक अंगको पालन करके ही अनेक भव्य जीवोंने मोक्ष प्राप्त किया है फिर भला जो समस्त अंगोंको पालन करते हैं वे क्यों नहीं मोक्ष प्राप्त कर सकते अर्थात् वे अवश्य मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥ ५८ ॥ इसलिये हे भव्यजीव ! तू इन आठों अंगों से परिपूर्ण सम्यग्दर्शनको धारण कर । यह सम्यग्दर्शन शुभ है, अनेक कर्म-समूहको नष्ट करनेवाला है और मोक्षका साधन है ||१९|| प्रश्न - हे भगवन् ! इन आठों अंगोंके सेवन करने से किस-किस भव्य जीवको क्या-क्या फल प्राप्त हुआ है सो आप कृपाकर सब मुझसे कहिये ||६० ||
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