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श्रावकाचार-संग्रह दात्रा येन सती कन्या वत्ता तेन गृहाश्रमः । दत्तस्तस्मै त्रिवर्गेण गृहिण्येव गृहं यतः ॥२०४ कुलवृत्तोन्नति धर्मसन्तति स्वेच्छया रतिम् । देवादीष्टिं च वाञ्छन्सत्कन्यां यत्नात्सदा वहेत् ॥२०५ धर्मपत्नी विना पात्रे दानं हेमादिकं मुधा । कोटर्बोभुज्यमानेऽन्तः कोऽम्भः सेकाद्गुणो द्रुमे ॥२०६ गोचरेषु सुखभ्रान्तिमोहकर्मोदयोद्भवाम् । हित्वा तदुपभोग्येन मोचयेत्तान्परं स्ववत् ॥२०७ दद्यात्कन्याधरादीनि पाक्षिको न तु नैष्ठिकः । हिंसात्वान्न दृग्द्वेषिसंक्रान्तिश्राद्धपर्वणि ॥२०८ समदानफलेनाऽतो भूत्वा त्रैवर्गिकाग्रणीः । मोहमाहात्म्यमुच्छेद्य मोक्षेऽपि बलवान्भवेत् ॥२०९ वाचनाप्रच्छनाम्नायाऽनुप्रेक्षा धर्मदेशनम् । स्वाध्यायं च पञ्चधा कुर्यात्काले ज्ञानविवृद्धये ॥२१० स्वाध्यायोऽध्ययनं स्वस्मै जैनसूत्रस्य युक्तितः । अज्ञानप्रतिकूलत्वात्तपःस्वेष परं तपः ॥२११ स्वाध्यायाज्ज्ञानवृद्धिः स्यात्तस्यां वैराग्यमुल्बणम् । तस्मात्सङ्गापरित्यागस्ततश्चित्तनिरोधनम् ॥२१२ तस्मिन्ध्यानं प्रजायेत ततश्चात्मप्रकाशनम् । तत्र कर्मक्षयाऽवश्यं स एव परमं पदम् ॥२१३
सिद्धाः सेत्स्यन्ति सिद्ध्यन्ति ये ते स्वाध्यायतो ध्र वम् । अतः स एव मोक्षस्य कारणं भववारणम् ॥२१४
समझो कि उसने कन्यादान लेनेवालेको-धर्म, अर्थ, कामके साथ-साथ गृहस्थाश्रम हो दिया है क्योंकि-गृहिणी (पत्नी) ही को तो घर कहते हैं ॥२०४।। अपने कुलको उन्नति, वृत्तकी उन्नति, धर्ममार्गमें चलनेवाली सन्तति (पुत्रादि), अपनी इच्छानुसार सम्भोग सुख तथा जिनदेवादिके पूजन आदिके चाहनेवाले पुरुषोंको-प्रयत्नपूर्वक उत्तम कन्याके साथ विवाह करना चाहिये ॥२०५।। जिस पुरुषके धर्मपत्नी (स्त्री) नहीं है उसके लिये सुवर्ण, रत्न, रथ, अश्व, हाथी आदि पदार्थों का दान देना एक तरह व्यर्थ ही समझना चाहिये। इसी विषयको दृष्टान्त द्वारा स्फूट करते हैं-जिस वृक्षके भीतरके भागको कीड़ोंने खा लिया है उसमें जलसिंचन करना जिस तरह व्यर्थ है ॥२०६।। चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे होनेवाली सुखकी भ्रान्तिको विषयोंके अनुभवसे छोड़कर-जिस प्रकार स्वयं विषयोंसे विरक्त हुआ है उसी तरह उन सधर्मी पुरुषोंको भी विषयोंसे विरक्त करे ।।२०७॥ कन्या, पृथ्वी, सुवर्ण, रथ, रत्न आदि वस्तुओंका दान पाक्षिकश्रावक देवे, नैष्ठिकश्रावकको नहीं देना चाहिये । परन्तु हिंसाका कारण होनेसे—सम्यग्दर्शनके शत्रुरूप संक्रान्ति पर्वमें तथा श्राद्धपर्वमें तो यह भी नहीं देना चाहिये ॥२०८।। इसी समदत्तिके फलसे यह पाक्षिक श्रावक धर्म, अर्थ, कामके धारण करनेवालोंमें अग्रणी होकर और मोहको महिमाका नाश करके मोक्षमें जाने योग्य होता है ॥२०९।।।
ज्ञानको दिनोंदिन वृद्धिके लिये भव्य पुरुषोंको-वाचना, पृच्छन्ना, आम्नाय, अनुप्रेक्षा तथा धर्मोपदेश ये पाँच प्रकार स्वाध्याय करना चाहिये ।।२१०॥ जैन शास्त्रोंके अनुसार अपने लिये अध्ययन करनेको स्वाध्याय कहते हैं। और यही स्वाध्याय अज्ञानका नाश करनेवाला है इसलिये तपमें यह उत्कृष्ट तप भी है ।।२११।। स्वाध्यायके करनेसे ज्ञानकी वृद्धि होती है, ज्ञानकी वृद्धि होनेसे चित्तमें उत्कट वैराग्य होता है; वैराग्यके होनेसे परिग्रहका त्याग ( छोड़ना ) होता है, परिग्रहके त्यागसे चित्त अपने वशमें होता है, चित्तके वश होनेसे ध्यान होता है, ध्यानके होनेसे आत्माको उपलब्धि होती है, आत्माकी उपलब्धि होनेसे ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंका नाश होता है और कर्मोका नाश ही मोक्ष कहा जाता है। भावार्थ-यह स्वाध्याय परम्परा मोक्षका कारण है इसलिये भव्य पुरुषोंको-शक्त्यनुसार स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये ॥२१२-२१३।। पूर्वकालमें जितने सिद्ध हुए हैं, आगामी होंगे तथा वर्तमानमें होने योग्य हैं वे सब नियमसे इस स्वाध्यायसे
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