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श्रावकाचारसंग्रह
बोधः पूज्यस्तपोहेतुस्तत्परत्वात्तपोऽपि च । शिवाङ्गत्वाद्द्द्वयं पूज्यं तदाधाराविशेषतः ॥१८२ अनुबद्ध जगबन्धु जिनधर्मं च पुत्रवत् । यस्येज्जनयितुं साधू स्तथा चाटयितुं गुणे ॥१८३ पुण्यं यत्नवतोऽस्त्येव कलिदोषेण तादृशाम् । असिद्धावपि सिद्धौ स्वान्योपकारो महान्भवेत् ॥ १८४ मुनिभ्यो निरवद्यानि रत्नत्रयविवृद्धये । भक्त्या भक्तौषधावासादोनि नित्यं प्रकल्पयेत् ॥ १८५ व्रतिनी: क्षुल्लिकीश्वापि सत्कुर्याद्गुणमालिनीः । यस्माच्चतुविधे सङ्घ दत्तं बहुफलं भवेत् ॥ १८६ सखीन्धर्मार्थकामानां यथायोग्यमुपाचरन् । त्रिवर्गसम्पदा प्राज्ञोऽमुत्रेह च प्रमोदते ॥ १८७ अकर्त्या क्लिश्यते चित्तं तत्क्लेशश्वाऽशुभावहः । चित्तप्रसत्तये तस्माच्छू यसे तां सदार्जयेत् ॥१८८ गुणाननन्यसदृशान्कीयर्थी गुण्यसंस्तुतान् । दानशीलतपोमुख्यांस्तन्नित्यं धारयेद् गृही ॥१८९ सर्वेभ्यो जीवराशिभ्यः स्वशक्त्या करणैस्त्रिभिः । दीयतेऽभयदानं यद्दयाबानं तदुच्यते ॥ १९० कानीनानाथदीनानां क्षुदाद्यैः पीडितात्मनाम् ।
सुखिनः सन्तु बुद्धयेति दानं भुक्त्यादि दीयताम् ॥ १९१
ज्ञान तपका कारण है इसलिये पूज्य है और तप ज्ञानका कारण है इसलिये पूज्य है तथा ज्ञान और तप ये दोनों मोक्षके कारण होनेसे पूज्य हैं और ज्ञानी तपस्वी गुणोंके आधार हैं इसलिये विशेषतासे पूज्य हैं ||१८२|| अपनी कुलपरम्परा सदा चलनेके लिये पुत्रके उत्पन्न करनेमें जैसा उद्योग किया जाता है उसो तरह जगद्-बन्धु जिन धर्म निरन्तर चले इसलिये साधुओंके उत्पन्न करनेमें प्रयत्न करना चाहिये तथा जो वर्तमानमें साधु लोग विद्यमान हैं उनमें ज्ञानादि गुण प्राप्त कराने में प्रयत्न करना चाहिये ||१८३ || यदि इस पंचम कलिकालके दोषसे ऊपर कहे अनुसार मुनियोंकी सिद्धि न हो तो भो उनके पैदा होनेके लिये प्रयत्न करनेवाले भव्य पुरुषोंको पुण्य कर्मका बन्ध होता ही है और यदि उनकी सिद्धि हो जाय तो फिर क्या कहना-अपना तथा धर्मात्मा पुरुषोंका बड़ा भारी उपकार होता है ॥ १८४॥ रत्नत्रयकी वृद्धिके लिये मुनि लोगोंको निर्दोष आहार औषध तथा आवास आदि वस्तु भक्तिपूर्वक निरन्तर देनी चाहिये ॥१८५॥ क्षुल्लिका, आर्यिका तथा शीलगुण वगैरह पालन करनेवाली श्राविकाओंका भी उनके योग्य सत्कार करना चाहिये । क्योंकि मुनि, आर्यिका श्रावक तथा श्राविका इन चार प्रकारके पात्रोंको दिया हुआ दान बहुत फलका देनेवाला होता है || १८६ | धर्म, अर्थ तथा कामको प्राप्तिके लिये सहायता करनेवाले मित्रोंका जो बुद्धिमान् यथायोग्य सत्कार करते हैं वे त्रिवर्ग सम्पत्ति से इह लोकमें तथा परलोकमें आनन्दको प्राप्त होते हैं ||१८७ || संसारमें अपयश होनेसे चित्त में एक तरहका दुःख होता है और वही क्लेश अशुभ ( पाप ) का कारण है इसलिये बुद्धिमान् पुरुषोंको अपने चित्तकी प्रसन्नताके लिये कल्याणके अर्थ कीर्ति ( यश ) को सदा सम्पादन करना चाहिये || १८८ || संसारमें अपनी कीर्ति चाहनेवाले सज्जन पुरुषोंको-जो गुण दूसरे साधारण पुरुषोंमें न पाये जायें, जिनकी बड़े-बड़े बुद्धिमान् लोग प्रशंसा करते हैं ऐसे दान, शील तथा तप आदि प्रधान गुण धारण करना चाहिये || १८९ ||
अब दयादत्तिका वर्णन करते हैं । सम्पूर्ण जीवमात्रके लिये कृत, कारित तथा अनुमोदनासे अपनी शक्तिके अनुसार अभयदान ( जीवदान ) देनेका बुद्धिमान् लोग दयादान ( दयादत्ति ) कहते हैं ||१९|| क्षुधादि असह्य दुःखोंसे जिनकी आत्मा पीड़ित हो रहो है ऐसे कानीन ( दोन ) तथा अनाथ आदि दुःखी पुरुषोंके लिये- ये लोग किसी प्रकार सुखो होवें इस बुद्धिसे आहार, औषधादि दान देना चाहिये || १९१ ॥ करुणावान् श्रेष्ठ दाताको सम्पूर्ण दुःखी जीवोंका अपनी शक्तिके
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