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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार यत्प्रोक्तं मुनिभिः पूर्व महामतिविशारदैः । तच्छक्यं कथमस्माभिः प्रोक्तं ज्ञानलवेन वै ॥३८ तथापि तत्क्रमाम्भोजप्रणामाजितपुण्यतः । स्तोकं सारं प्रवक्ष्यामि धर्म श्रावकगोचरम् ॥३९ येन धर्मेण जोवानां पापं नश्यति दूरतः । स्वर्गश्रीः स्वयमायाति मुक्तिरालोक्यते पुनः ॥४० धर्मसिंहासनारूढ़ो यद्यदङ्गी समीहते । तत्तदेव समायाति सुखं लोकत्रयोद्भवम् ॥४१ सद्धर्मो यस्य जीवस्य हस्ते चिन्तामणिर्भवेत् । कल्पवृक्षो गहे तस्य कामधेनुश्च किंकरी ॥४२ धर्मो बन्धुश्च मित्रं स्याद्धर्मः स्वामिसुखाकरः। हितं करोति जन्तूनामत्रामुत्र फलप्रदः ॥४३ श्रावकाचारजं धर्म श्रेष्ठं यो वितनोति सः । स्वर्गे षोडशमे भुक्त्वा सुखं मुक्त्यालयं व्रजेत् ॥४४ यथा मेघाद्विना न स्यात्सस्य-निष्पत्तिरत्र भोः । तथा धर्माद्विना लक्ष्मोधनधान्यादिगोचरा ॥४५ ऋद्धिः संजायते नैव पापेनाचरणेन वा । यथा हि मुखसंजातममृतं नैव दृश्यते ॥४६ धर्म यः कुरुते साक्षादलं तस्य फलं परम् । विधत्ते धर्मसन्नाम योऽसौ स्वर्गाधिपो भवेत् ॥७ असद्विद्याविनोदेन कि साध्यं हितकाक्षिणाम् । धर्मः सदैव कर्तव्यो येन जीवः सुखायते ॥४८ भ्रातस्त्वं भज दर्शनं व्रतमतः सामायिक प्रोषधं, त्यागं चैव सचित्तवस्तुविषये सूर्यास्तमे भोजनम् । अब्रह्म त्यज पापदं गहभवं प्रारम्भमेवाजसा, द्रव्यं स्वगृहकारणानुमननं प्रोद्दिष्टभुक्तादिकम् ॥४९
ज्ञानको बढ़ानेवाले शास्त्रको मैं कहता हूँ॥३६-३७।। जो यह शास्त्र पहिलेके बड़े बड़े बुद्धिमान और चतुर आचार्योंने निरूपण किया है उसे मैं यद्यपि अपने थोड़े ज्ञानसे कह नहीं सकता तथापि उन आचार्योंके चरणकमलोंको नमस्कार करनेसे जो पुण्य प्राप्त हुआ है उसके प्रभावसे मैं थोड़ा सा सारभूत श्रावकाचार धर्म कहता हूँ ॥३८-३९॥ इस जैन धर्मके प्रभावसे जोवोंको पाप दूरसे ही देखता रहता है पास नहीं आता, तथा स्वर्गकी लक्ष्मी अपने आप उसके पास आ जाती है और मुक्तिरूपी कन्या भी उसे सदा देखती रहती है ।।४०।। जो जीव धर्मसिंहासनपर विराजमान है वह तीनों लोकोंमें उत्पन्न हुए सुखोंमें से जो जो चाहता है वह सब उसके पास स्वयं आ जाता है ॥४१॥ जो जीव इस श्रेष्ठ धर्मको पालन करता है उसके हाथमें चिंतामणि रत्न ही समझना चाहिये अथवा कल्पवृक्ष उसके घरमें ही समझना चाहिये और कामधेनु उसको दासी समझनी चाहिये ॥४२॥ इस संसारमें धर्म ही बंधु है, धर्म ही मित्र है, धर्म हो स्वामी है, धर्म ही सुख करनेवाला है, धर्म ही हित करनेवाला है और इस लोक तथा परलोक दोनों लोकोंमें धर्म ही जीवोंको श्रेष्ठ फल देनेवाला है ।।४३।। जो जीव इस सर्व श्रेष्ठ श्रावकाचार धर्मका पालन करता है वह सोलहवें स्वर्गके सुख भोगकर मोक्षमहलमें जा विराजमान होता है ।।४४।। जिस प्रकार इस लोकमें विना मेघोंकी वर्षाके अच्छे धान्योंकी उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार विना धर्मके धन्य धान्य आदि किसी भी प्रकारकी लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती ॥४५॥ जिस प्रकार सर्पके मुखमें पड़ी हुई कोई भी वस्तु अमृत रूप नहीं हो सकती उसी प्रकार पापाचरणोंसे धन धान्यादि ऋद्धियाँ कभी नहीं मिल सकतीं ॥४६।। जो जीव इस धर्मको साक्षात् होकर पालन करता है उसको अन्य किसी फलको आवश्यकता नहीं है क्योंकि इस धर्मको पालन करनेवाला पुरुष स्वयं स्वर्गका स्वामी बन जाता है ॥४७|| इसलिये अपने आत्माका हित चाहनेवाले जीवोंको अज्ञान छोड़कर सदा धर्मका ही पालन करते रहना चाहिए क्योंकि धर्मका पालन करनेसे हो सुखकी प्राप्ति होती है ॥४८॥ हे भाई, तू दर्शनप्रतिमा, व्रतप्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, प्रोषधोपवास प्रतिमा, सचित्तत्याग प्रतिमा, रात्रिभोजनत्याग प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग इन ग्यारह प्रतिमाओंको अनुक्रमसे पालन कर । ये सब प्रतिमाएं पापोंको नष्ट करनेवाली
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