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तीसरा परिच्छेद
शंभवं जिनमानम्य भव्यलोकसुखप्रदम् । देवधर्मगुरून् वक्ष्ये सम्यग्दर्शनहेतवे ॥१ वीतरागो भवेद्देवो धर्मो हिंसाविर्वाजतः । निर्ग्रन्थश्च गुरुर्नान्य एतत्सम्यक्त्वमुच्यते ॥२ कानिचिज्जिननामानि वक्ष्ये शब्दार्थयोगतः । यानि भव्योपकाराय ध्यातव्यानि मुनीश्वरैः ॥ ३ पञ्चकल्याणपूजाया योग्यः स्वर्गाधिनायकैः । गर्भादिसत्कृतायाश्च बुधैर्योऽर्हन् स संस्मृतः ॥४ अरीणां कर्मशत्रूणां दुःखशोक विधायिनाम् । हन्ता योसौ भवेल्लोकेऽरिहन्ता प्रोच्यते जिनैः ॥५ मोहदुः कर्मविश्लेषाद्रजः कर्मविनाशनात् । अन्तरायक्षयात्सार्थोऽरिहन्ता कथ्यते जिनेः ॥६ अनन्तजन्मसन्तानदायिनां कर्मवैरिणाम् । जयाज्जिनो भवेत्सर्वं कर्मशत्रु विमर्दकः ॥७ केवलज्ञानमत्यन्तं लोकालोकं विभासते । यस्य नित्यं स्वयं वाप्य विष्णुः स स्यान्न चापरः ॥८ लक्ष्मी सभादिका जाता ज्ञानादिप्रभवा पुनः । यस्येश्वरो भवेत्सोऽपि नान्यो नाम्ना हि तं विना ॥९ सभायां दृश्यते यो हि चतुर्वक्रो नरामरैः । परब्रह्मस्वरूपो वा ब्रह्मा सः स्यान्न चापरः ॥ १०
अथानन्तर- अब में भव्य जीवोंको सुख देनेवाले भगवान् संभवनाथको नमस्कार कर सम्यग्दर्शनको दृढ करनेके लिये देव धर्म और गुरुका स्वरूप वर्णन करता हूँ ॥१॥ जो वीतराग है वही देव है, जो हिंसासे रहित है वही धर्म है और जो परिग्रह रहित है वही गुरु है । इनके सिवाय न देव है, न धर्म है और न गुरु है ऐसा श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है ||२|| अब मैं भगवान् जिनेन्द्रदेवके कुछ नाम उनके अर्थ सहित बतलाता हूँ । वे नाम भव्य जीवोंका उपकार करनेवाले हैं और मुनियोंके द्वारा ध्यान करने योग्य हैं || ३ || वे भगवान् पंच कल्याणक पूजाके योग्य हैं, स्वर्गके अनेक इन्द्रोंने उनके गर्भ जन्म आदि संस्कार किये हैं और विद्वान् लोग सदा उनका स्मरण करते रहते हैं इसीलिये उनका नाम अर्हत् (जो पूज्य हो) प्रसिद्ध हुआ है ॥४॥ वे भगवान् दुःख शोक आदिको बढ़ानेवाले, कर्मरूप शत्रुओंको नाश करनेवाले हैं इसीलिये अरिहंत ( अरि- कर्मरूप शत्रुको हंत-मारनेवाले, नाश करनेवाले) कहलाते हैं । ऐसा भगवान् जिनेन्द्रदेवने कहा है ||५|| अथवा उनका मोहरूपी सबसे अधिक अशुभ कर्म नष्ट हो गया है तथा धूलिके समान ज्ञान दर्शनको रोकनेवाले ज्ञानावरण दर्शनावरण नष्ट हो गये हैं और अन्तरायकर्म नष्ट हो गया है । इस प्रकार चारों घातिया कर्म नष्ट होनेसे अरहन्त कहलाते हैं ||६|| उन भगवान्ने अनंतानंत जन्मों तक बराबर दुःख देनेवाले कर्मरूप शत्रुओंको जोता है अर्थात् समस्त कर्मरूप शत्रुओं को नष्ट किया है इसलिये वे जिन ( कर्मोंको जीतनेवाले) कहलाते हैं ||७|| उनका केवलज्ञान समस्त लोक अलोकमें व्याप्त होकर रहता है तथा लोक अलोक दोनोंको प्रकाशित करता है इसलिये वे विष्णु कहलाते हैं । भगवान् जिनेन्द्रदेव के सिवाय अन्य कोई विष्णु नहीं है ||८|| केवलज्ञानके उत्पन्न होनेसे उनके अनन्त चतुष्टय वा समवसरण आदि अनेक प्रकारकी लक्ष्मी प्रगट हुई है इसलिये वे ईश्वर कहलाते हैं। इनके सिवाय अन्य कोई नामका भी ईश्वर नहीं है ||९|| देव और मनुष्यों को समवसरण सभामें उनके चारों ओर चार मुँह दिखाई देते हैं अथवा वे भगवान् परम ब्रह्म स्वरूप हैं, शुद्ध आत्म स्वरूप हैं इसलिये वे ब्रह्मा कहलाते हैं । ब्रह्मा भी उनके सिवाय अन्य कोई नहीं है ||१०|| वे भगवान् अनन्त सुखसे परिपूर्ण और सब प्रकारकी सिद्धियोंसे
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