________________
२२१
प्रश्नोत्तरश्रावकाचार मातृपित्रादिसिद्धयर्थ श्राद्धं कुर्वन्ति ये वृथा । गृह्णन्ति ते खपुष्पेण वैबन्ध्यासुतशेखरम् ॥११९ भोजनं कुरुते पुत्रः पिता पश्यति तं स्वयम् । यदि तृप्ति भजन्नैव मृतः सोऽपि कथं श्रयेत् ॥१२० द्रव्यार्जनानसंपाकजातजीवक्षयाद् ध्र वम् । बृहत्पापकरं श्राद्धं न च पुण्यप्रदं भवेत् ॥१२१ श्रद्धापूर्व सुपात्राय दानं देयं विवेकिभिः । स्वधर्माय परार्थ न श्राद्धं कार्य च पापदम् ॥१२२ वर्तमाने स्वपित्राणां धर्मविघ्नं भजन्ति ये । तन्मृतानां च श्राद्धं ते श्वभ्रनाथा भवन्ति वै ॥१२३ बहनोक्तेन किं मूढः पितृदेवादिकारणम् । तपोदानं च यः कुर्याद व्यर्थ तस्य भवेच्च तत् ॥१२४ सर्व च पापदं विद्धि संक्रान्तिग्रहणादिजम् । दानमेकादशीसूर्यप्रभवं कतपोऽखिलम् ॥१२५ रागद्वेषादिसंसक्तैध ः मिथ्योपदेशिभिः । मूखैः कमार्गसंलग्नोषित्संसक्तमानसैः ॥१२६ प्रणीतो यः कुधर्मो हि मूढसत्त्वप्रतारणः । अक्षसंपोषको दुष्टस्तं त्यज त्वं विषाहिवत् ॥१२७ हिंसाधर्मरताः मूढाः तुष्टाः कुगुरुसेवकाः । कुदेवकुतपःसक्ताः कुति यान्ति पापतः ॥१२८ वरं हुताशने पातो वरं कण्ठे च सपिणी । विषस्य भक्षणं श्रेष्ठं मिथ्यात्वान्न च जीवितम् ॥१२९ यदुक्तं जिननाथेन दानपूजावतादिकम् । तपः सोऽपि भवेद्धर्मः कुधर्म सर्वमन्यथा ॥१३० पुष्पोंसे बंध्यापुत्रके लिये मुकुट बनाते हैं। भावार्थ-जिस प्रकार बंध्यापुत्रके लिये मुकुट बनाना व्यर्थ है क्योंकि बंध्याके पुत्र होता ही नहीं उसी प्रकार मृत पुरुषोंके लिये श्राद्ध करना भी व्यर्थ है क्योंकि वह उनके पास पहुँचता ही नहीं ॥११९।।
जिस समय पुत्र भोजन करता है और पिता उसे स्वयं देखता है तथापि वह पुत्रके भोजन से तृप्त नहीं होता फिर भला मरनेपर वह किस प्रकार तृप्त हो सकता है ॥१२०।। श्राद्ध करनेके लिये द्रव्य कमाना पड़ता है, बहुत सा अन्न सेकना पड़ता है और इन दोनों कामोंमें बहुतसे जीवों की हिंसा होती है इस प्रकार श्राद्ध करनेमें भारी पाप तो होता है परन्तु उससे किसी प्रकारका पुण्य उत्पन्न नहीं होता ॥१२१।। विवेकी पुरुषोंको केवल अपना धर्मपालन करनेके लिये श्रद्धापूर्वक सुपात्रोंको दान देना चाहिये यही सबसे उत्तम श्राद्ध है। दूसरोंके लिये (मृत पुरुषोंके लिये) श्राद्ध कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि वह श्राद्ध केवल पाप उत्पन्न करनेवाला है ॥१२२॥ जो अपने वर्तमान माता-पिताओंके धर्ममें तो विघ्न करते हैं और उनके मरनेपर उनका श्राद्ध करते हैं वे अवश्य नरकके स्वामी होते हैं ॥१२३॥ बहुत कहनेसे क्या ? जो मूर्ख अपने पितरोंके लिये वा कूदेवोंके लिये तप करते हैं वा दान देते हैं उनका वह सब इस संसारमें व्यर्थ हो जाता है ॥१२४।। इसी प्रकार संक्रातिके दिन वा ग्रहणके दिन दान देना, एकादशोके दिन उपवास करना, सूर्यको पूजना आदि सब कुतप है, सब पाप उत्पन्न करनेवाला है ।।१२५।। जो राग द्वेषमें आसक्त हैं, धूर्त हैं, मिथ्या उपदेश देनेवाले हैं, कुमार्गगामी हैं, मूर्ख हैं और जिनका हृदय स्त्रियोंमें आसक्त है ऐसे लोगोंके हो द्वारा इस कुधर्मका उपदेश दिया गया है। यह कुधर्म अज्ञानियोंको ठगनेवाला है, इंद्रियोंके अनेक दोषोंको उत्पन्न करनेवाला है और दुष्ट है इसलिये हे भव्य ! तू ऐसे इस कुधर्मको विपले सर्पके समान छोड़ ॥१२६-१२७॥ जो अज्ञानी हिंसा धर्ममें आसक्त हैं, जो दुष्ट हैं, कुगुरुओंकी सेवा करनेवाले हैं कुदेवोंकी सेवा करनेवाले हैं और मिथ्या तप करने में लगे हुए हैं ऐसे जीव पाप करनेके कारण कुगतियोंमें जाकर जन्म लेते हैं ॥१२८॥ अग्निमें जल मरना अच्छा है, गलेमें सर्पको डाल लेना अच्छा है और विष खा लेना अच्छा है परंतु मिथ्यात्वका सेवन करते हुए जीवित रहना अच्छा नहीं ॥१२९।। भगवान् जिनेंद्र देवने जो कुछ दान, पूजा, व्रत, तप, आदिका वर्णन किया है वही धर्म है इसके सिवाय जो कुछ है वह अधर्म है ।।१३०।। जो धर्म तप दान पूजा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org