________________
२०६
श्रावकाचार-संग्रह पूर्वकर्मकृतस्यैव ज्ञानध्यानतपोरतेः । विषीयते क्षयं यश्च निर्जरा सा विपाकजा ॥३६ कर्तव्या मुनिभिः सा च सर्वमुक्तिनिबन्धना । विपाकात्कर्मणां जाता साप्यन्या परकर्मदा ॥३७ सविपाका हि सर्वेषां भवेत्कर्मवशाच्च सा । हेयान्कर्मदादेया परा मोक्षकराः बधः ॥३८ यो जीवकर्मविश्लेषः स मोक्षः कथ्यते जिनैः । मुनीनां सत्तपोवृत्तसंवरणाविकृतात्मनाम् ॥३९ यथा बन्धनबद्धस्य पुरुषस्य विमोचनात् । सुखं भवेत्तथा कर्मबन्धस्य तत्क्षयाद्वरम् ॥४० आत्यन्तिकं स्वभावोत्थमनन्तमविनश्वरम् । अनौपम्यं भ्रमातीतं मोक्षसौख्यं जगुजिनाः ॥४१ शुभाशुभेन भावेन पुण्यपापद्वयं भवेत् । सातायुर्नामगोत्राणि पुण्यं पापं ततोऽपरम् ॥४२ मिथ्यात्वपञ्चकं क्रूरं कषायाः पञ्चविंशतिः । दशपञ्च प्रमादाश्च योगाः कौटिल्यतत्पराः॥४३ मदाष्टकं चतुःसंज्ञा विषयाः सप्तविंशतिः । आर्तरौद्राष्टकं ध्यानं सप्तैव व्यसनानि च ॥४४ विषादो द्वादशैर्वापि पापाढ्यास्त्वविरतयः । रागो द्वेषो महामोहो भयाः सप्त शरीरिणाम् ॥४५ वेदाः शोकाः क्रियाश्चैव विशतिश्चतुरुत्तराः । कौटिल्यं सर्वमेतच्च पापबन्धाय सम्भवेत् ॥४६ नियमस्य विभङ्गेन महापापं प्रजायते । प्राणिनां देवसच्छास्त्रगुरुलोपनयोगतः ॥४७ ।। धर्मादिविघ्नकरणात्पापं मिथ्यात्वपोषणात् । सततं मिथ्योपदेशात्कौटिल्याज्जायते पुनः ॥४८ परीषहजय और ज्ञान, ध्यान, व्रत आदिके द्वारा होता है ॥३५।। कर्मोंके एक देश क्षय होनेको निर्जरा कहते हैं । वह दो प्रकारको होती हैं-अविपाक निर्जरा और सविपाक निर्जरा । जो ज्ञान, ध्यान और तपके द्वारा पहिलेके इकट्ठे किये हुए कर्म नष्ट होते हैं उसको अविपाक निर्जरा कहते हैं॥३६॥ इस अविपाक निर्जराको मुनि लोग हो करते हैं यह निर्जरा स्वर्ग मोक्षकी कारण है। तथा जो कर्मोंके विपाकसे होती है, कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं उसको सविपाक निर्जरा कहते हैं। यह सविपाक निर्जरा अन्य अनेक कर्मोंका आस्रव करनेवाली है ।।३७। यह सविपाक निर्जरा संसारी सब जीवोंके होती है, कर्मके आधीन है और अन्य अनेक कर्मोंका आस्रव करनेवाली है तथा दूसरी अविपाक निर्जरा विद्वानोंको मोक्ष देनेवाली है ॥३८।। जोव कर्मोंके संबंधके छूट जानेको अर्थात् समस्त कर्मोके नाश हो जानेको मोक्ष कहते हैं । संवर निर्जरा आदिको धारण करनेवाले मुनियोंके तप चारित्र आदिसे वह मोक्ष प्राप्त होती है ॥३९॥ जिस प्रकार किसी बंधनसे बँधे हुए पुरुषको छोड़ देनेसे सुख होता है उसी प्रकार कर्मोसे बंधे हुए जीवको उन कर्मोके नाश हो जानेसे अनंत सुख प्राप्त होता है ॥४०॥ मोक्षका सुख स्वाभाविक है, अनंत है फिर कभी भी नष्ट नहीं होता, संसारमें कोई भी इसकी उपमा नहीं, संसारके परिभ्रमणसे सर्वथा रहित है और आत्यंतिक है ऐसा श्री जिनेंद्रदेवने कहा है ॥४१॥ जीवोंके शुभ अशुभ भावोंसे पुण्य पाप होता है अर्थात् शुभ भावोंसे पुण्य होता है और अशुभ भावोंसे पाप होता है । साता वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र ये कर्म पुण्य हैं और बाकीके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, असाता वेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम, अशुभ गोत्र ये पाप हैं ॥४२॥ मिथ्यात्व पाँच, कषाय पच्चीस, प्रमाद पंद्रह, कुटिलतामें तत्पर रहनेवाले योग ये सब पापबन्धके कारण हैं। इनके सिवाय मद आठ, संज्ञा चार, विषय सत्ताईस, आर्तध्यान चार, रौद्रध्यान चार, व्यसन सात, अविरति बारह, राग, द्वेष, मोह, भय सात, वेद, शोक क्रिया चौबीस, इन सबका होना कुटिलता कहलाती है। ये सब पापबन्धके कारण हैं ॥४३-४६।। किसी स्वीकार किये हुए नियमके भंग करनेसे (किसी व्रतका भंग कर देनेसे) महापाप उत्पन्न होता है तथा देव शास्त्र गुरुके छिपानेसे अथवा उनकी आज्ञाका भंग करनेसे भी जीवोंको महापाप होता है ॥४७॥ धर्मकार्योंमें विघ्न करनेसे पाप और मिथ्यात्वको
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org