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धर्मसंग्रह श्रावकाचारं
द्योतते यत्र जैनत्वगुणोऽप्येको गुणाग्रणीः । साघुपात्रः परेद्यत्यं भानौ खद्योतवत्ततः ॥१७५ एकोऽप्युपकृतो जैनो वरं नाऽन्ये ह्यनेकशः । हस्ते चिन्तामणौ प्राप्ते को गृह्णाति शिलोच्चयान् ॥ १७६ नाम्नः पात्रायते जैनः स्थापनातस्तमां परात् । धन्यः स द्रव्यतः प्राप्यो भाग्यवद्भिश्च भावतः ॥ १७७ यश्व प्रसिद्धजैनत्वगुणे रज्यति निर्मिषम् । संसारेऽभ्युदयैस्तृप्तः स याति तपसा शिवम् ॥ १७८ लब्धं दैवाद्धनं सासु नियमेन विनङ्क्ष्यति । बहुधा तद्वययीकुर्वन्सुधीर्जेनान्क्षिपेत्किमु ॥ १७९ आरोप्यैदयुगोनेषु जिनांस्तत्प्रतिमास्विव । प्राङ्मुनीनचयेद्भक्त्या श्रेयो नास्त्यतिर्चाचनाम् ॥१८० शुभ भावो हि पुण्यायाऽशुभः पापाय कीर्तितः । धीरस्तं जैनभक्त्यातो दुष्यन्तं रक्षतात्सदा ॥१८१
चाहिये ||१७३|| धर्म अर्थ काम इन तोन पुरुषार्थ के साधन करनेवाले गृहस्थोंको – सामायिक – जिन भगवान् करके उपदेशित शास्त्र के आधार चलनेवाला, साधक - लोकोपयोगी ज्योतिषशास्त्र तथा मंत्र शास्त्रादिका जाननेवाला, समयद्योतक - जिन शासनको प्रभावना करनेवाला, नैष्ठिक-मूलगुण तथा उत्तर गुणादिसे स्तुति योग्य तपके अनुष्ठान करनेमें तत्पर, तथा गणाधिप-धर्माचार्य अथवा उन्होंके समान बुद्धिमान गृहस्थाचार्य इन पाँच पात्रोंको उत्तरोत्तर गुणकी प्रीतिसे दान, मान संभाषणादिसे सन्तोषित करना चाहिये || १७४ | | मुझे संसार सागरसे पार करनेमें जिनदेव ही समर्थ हैं ऐसे निश्चयको जैनत्वगुण कहते हैं । यह प्रधान जैनत्वगुण एक भी जिस पुरुष में पाया जाता है उसके सामने — तपश्चरणादिके करनेवाले मिथ्यादृष्टि अच्छे पात्रोंको भी उसी तरह तेज रहित रहते हैं जैसे सूर्यके सामने खद्योत ( पटवीजना) तेज रहित रहता है || १७५ ॥
जैनधर्मके धारक एक भी भव्य पुरुषका उपकार करना अच्छा है परन्तु हजारों मिथ्यादृष्टियोंका उपकार करना अच्छा नहीं है । इसी बातको दृष्टान्त द्वारा स्फुट करते हैं । जब हाथ में चिन्तामणि रत्न आ जावे फिर ऐसा कौन दुर्बुद्धि होगा जो उसे छोड़कर पत्थरोंको स्वीकार करेगा ? कोई भी नहीं करेगा || १७६ || नाम जैन ( जिसकी जैन संज्ञा है ) स्थापना जैन ( यह जैन है ) ऐसी कल्पना मात्र जिसके विषयमें है वह जैन, अजैन पात्रोंको अपेक्षा - अतिशयता से जिसे मोक्षके कारणभूत गुण प्राप्त हुए हैं उनके समान उत्कृष्ट है । यही कारण है कि उन दोनोंको सम्यक्त्वके बराबर होनेवाला पुण्य होता है । वह जैन, द्रव्यसे ( आगामी प्राप्त होनेवाले जैनत्व गुणसे युक्त) पुण्यवानों को प्राप्त होता है और वही भावसे जिसके पास जैनत्वगुण है ऐसा भाव — भाग्यवानोंको प्राप्त होता है || १७७ || जो उपर्युक्त प्रसिद्ध जैनत्वगुणमें छलरहित अनुरागी होता है वह पुरुष संसारमें नाना प्रकारके अभ्युदयसे सन्तोषको प्राप्त होता हुआ तपश्चरण से मोक्षको प्राप्त होता है || १७८ || जन्मान्तरमें उपार्जन किये हुए किसी पुण्य कर्मके उदयसे जो धन प्राप्त हुक्षा है वह नियमसे प्राणोंके साथ नाशको प्राप्त होगा। लोक-लाजसे उस धनको अनेक तरहसे लौकिक कार्यों में खर्च करता हुआ कौन दुर्बुद्धि होगा जो जैन साधु आदिका तिरस्कार करेगा ? अर्थात् उनके अर्थ धन खच नहीं करेगा ? अवश्य करेगा || १७९ || जिस प्रकार धातु तथा पाषाणादिकी प्रतिमाओंमें साक्षाज्जिन भगवान्का संकल्प किया जाता है उसी तरह इन पंचम कालके मुनियों में प्राचीन कालके मुनियों का आरोप ( संकल्प ) करके भक्तिपूर्वक उनका पूजनादि करना चाहिये । क्योंकि अधिक शोध (परीक्षा) करनेवालोंका कल्याण नहीं होता ॥ १८० ॥ शुभ परिणाम पुण्यका कारण है तथा अशुभ परिणाम पापका कारण है इसलिये घोर पुरुषोंको किसी कारणसे खराब होनेवाले अपने परिणामको जिन भक्ति आदिसे रक्षा करनी चाहिये || १८१ ॥
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