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श्रावकाचार-संग्रह ऋते धर्मार्थकामानां सिद्धि तज्जीवनं मुधा । तथापि धर्मसिद्धि नो विना तां यद्धवस्तयोः ॥१६३ तपो द्वादशधा ख्यातं मध्यबाह्यप्रभेदतः । प्रायश्चित्तादिभिमध्यं बाह्यं चाऽनशनादिभिः ॥१६४ यत्र संक्लिश्यते कायस्तत्तपो बहिरुच्यते । इच्छानिरोधनं यत्र तदाभ्यन्तरमोरितम् ॥१६५ क्षारादिवह्नियोगेन यथा शुद्ध्यति काञ्चनम् । तथा द्विघा तपोयोगाज्जीवः शुष्यति कर्मणः ॥१६६ पञ्चमोरोहिणीसौख्यसम्पन्नन्दीश्वरादिकम् । तपोविधि गृही कुर्यात्तपसा निजरा यतः ॥१६७ अष्टम्यां च चतुर्दश्यामुपवासं करोत्वसो । शक्त्यभावे प्रकुर्वीत काञ्जिकाकभक्तकम् ॥१६८ आरम्भजलपानाम्यां स चाऽनाहार उच्यते । आरम्भादनुपवास उपवासोऽम्बुपानतः ॥१६९ महोपवासः स्याज्जैनशास्त्र द्वयविजितः । इति ज्ञात्वोपवासश्च यथाशक्ति विधीयताम् ॥१७० विधि विधाय पञ्चम्यादीनां मोक्षान्तभतिदम । उद्योतयेत्स्वसम्पत्त्या निमित्त स्यान्मनः समृत ॥१७१ दानं चतुविधं पात्रदयासकलसाम्यतः । पात्रदानं यदुक्तं प्राक्तदेवात्राऽपि बुध्यताम् ॥१७२ धर्मपात्रमनुग्राह्यममुत्र स्वार्थसिद्धये। कार्यपात्रं तयात्रैव कोत्ये त्वौचित्यमाचरेत् ॥१७३ नित्यं सामायिकादोनि पञ्च पात्राणि तर्पयेत् । दानादिनोत्तरोत्तरगुणरागेण सद्गृही ॥१७४
अर्थ तथा कामकी सिद्धिके विना जो जीवन निर्वाह है उसे व्यर्थ ही समझना चाहिये तो भी धर्मसिद्धिको छोड़कर अर्थ तथा कामका संभव नहीं होता है ॥१६३।। प्रायश्चित्त, विनय, वेयावृत्त, स्वाध्याय,व्युत्सर्ग तथा ध्यान इन छह प्रकार तपसे अन्तरंगतप तथा अनशन, अवमौदर्य, वृत्तपरिसंख्या, रसपरित्याग, विविक्तशय्या-आसन तथा कायक्लेश इन छह भेदोंसे बाह्यतप, इसप्रकार अन्तरंगतप तथा बाह्यतप बारह प्रकार है ।।१६४॥ जिस तपमें शरीरादिको क्लेश होता है उसे बाह्य तप कहते हैं और जिस तपके करने में इच्छा ( अभिलाषा ) का निरोध होता है उसे आभ्यन्तर तप कहते हैं ॥१६५।। जिस प्रकार क्षार वस्तु तथा अग्नि आदिके सम्बन्धसे सुवर्ण शुद्धिताको प्राप्त होता है उसी तरह बाह्य तथा आभ्यन्तर तपके योगसे यह जीव भी कर्मरूप काटसे निर्मलताको प्राप्त होता है ॥१६६।। इसलिये गृहस्थोंको-पंचमीव्रत, रोहिणीव्रत, सुखसम्पत्ति तथा नन्दीश्वर व्रत आदि तप करना चाहिये। क्योंकि तपसे कर्मोंकी निर्जरा होतो है ॥१६७॥ श्रावकोंको अष्टमी तथा चतुर्दशोके दिन उपवास करना चाहिये। यदि उपवास करनेकी शक्ति न हो तो काजिक (एक अन्नका खाना) तथा एक भुक्त करना चाहिये ॥१६८|| आरम्भके करनेसे तथा जलके पीनेसे तो अनाहार कहा जाता है। केवल आरम्भके करनेसे अनुपवास होता है तथा जलपान करनेसे उपवास होता है ।।१६९।। जिसमें न तो आरम्भ हो और न जलपान किया जाता है उसे जैनशास्त्रोंमें महोपवास कहते हैं। ऐसा समझ कर अपनी सामर्थ्यानुसार भव्य पुरुषोंको उपवास करना चाहिये ॥१७०॥ मोक्ष पर्यन्त सम्पदाके देनेवाली पंचमी रोहिणी नन्दीश्वरादि व्रत विधिको करके अपनी सम्पदाके अनुसार इन विधियोंका उद्यापन करना चाहिये। क्योंकि नैमित्तिक कार्यके करने में मन बहुत आनन्दित होता है ॥१७१।। पात्रदत्ति, दयादत्ति, सकलदत्ति तथा समदत्ति इस तरह दानके चार विकल्प हैं। इनमें पात्रदानका तो जो हम पहले स्वरूप कह आये हैं वैसा ही यहाँ समझना चाहिये ॥१७२।। इस लोकमें सुख प्राप्तिके लिये रत्नत्रयके धारण करनेवाले मुनि आदिकोंको उनके योग्य वस्तु देकर उपकार करना चाहिये । धर्म, अर्थ तथा कामकी प्राप्ति के लिये सहायता करनेवाले कार्यपात्रको त्रिवर्गकी सिद्धिके लिये उनके योग्य पदार्थ देकर उपकार करना चाहिये तथा कीत्ति सम्पादन करनेके लिये दान, प्रिय भाषणादि उचितसे कार्य करना
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