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धर्मसंग्रह श्रावकाचार
इति सद्गृहिणा कार्यो नित्यो नैमित्तिकोऽपि च ।
स्वाध्यायो रहसि स्थित्वा स्वयोग्यं शुद्धिपूर्वकम् ॥ २१५
मनःकरणसंरोधस्त्रसस्थावरपालनम् । संयमः सद्गृही तं च स्वयोग्यं पालयेत्सदा ॥ २१६ संयम द्विविधो हि स्यात्सकलो विकलस्तथा । आद्यः तपस्विभिः पाल्यः परस्तु गृहिभिस्तथा ॥ २१७ आरम्भेन विना वासो गृहे स न विना वधात् । मुच्यो मुख्यः सयत्नेन दुर्मोच्योऽवश्यभाविकः ॥२१८ त्यजेद्गवादिभिर्वृत्ति नैष्ठिको बन्धनादिना । विना भोग्यानुपेयात्तान्निर्द्दयं वा न योजयेत् ॥ २१९ तपस्यन्नपि मिथ्यादृक्संयमेन विनाऽधिकम् । पञ्चाग्न्यादिभिरेकाग्र्यं देवो भूत्वा भवी भवेत् ॥ २२० सम्यक्त्वरहितं ज्ञानं चारित्रं ज्ञानवजितम् । तपः-संयमहीनं च यो धत्ते तन्निरर्थकम् ॥२२१ ऋते नृत्वं न कुत्राऽपि संयमो देहिनां भवेत् । मत्वेत्येकापि कालस्य कला नेया न तं विना ॥२२२ कर्माणि षण्मयोक्तानि गृहिणो वर्णभेदतः । ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चेति चतुविधाः ॥२२३ यजनं याजनं कर्माsध्ययनाध्यापने तथा । दानं प्रतिग्रहश्चेति षट्कर्माणि द्विजन्मनान् ॥२२४ यजनाव्ययने दानं परेषां त्रीणि ते पुनः । जातितीर्थप्रभेदेन द्विविधा ब्राह्मणादयः ॥२२५
ही हुए हैं तथा होनेवाले है इसलिये संसारका नाश करनेवाला यही स्वाध्याय मोक्षका कारण है || २१४ || इस प्रकार स्वाध्यायको परम्परा मोक्षका कारण समझ कर भव्य गृहस्थोंको — एकान्त स्थान में बैठकर मन, वचन, कायकी शुद्धिपूर्वक नित्य तथा नैमित्तिक स्वाध्याय करना चाहिये || २१५ || मन और इन्द्रियों के वश करनेको तथा त्रस और स्थावर जीवोंकी रक्षा करनेको संयम कहते हैं । इसलिये सद्गृहस्थोंको - अपने योग्य संयम निरन्तर पालन करना चाहिये || २१६ || उपर्युक्त संयम-सकलसंयम तथा विकलसंयम इस प्रकार दो भेदरूप हैं । सकलसंयम मुनिलोगों के धारण करने योग्य होता है तथा विकलसंयम गृहस्थ लोगोंके पालन करने योग्य है || २१७ || आरंभके विना तो गृहमें रहना नहीं हो सकता और हिंसाके विना आरम्भ नहीं होता । अर्थात् आरम्भमें जीवोंकी हिंसा अवश्य होती है । इसलिये प्रधान जो आरम्भ है वह तो प्रयत्नपूर्वक छोड़ना चाहिए । परन्तु जो आवश्यकीय आरम्भ है वह कठिनता से छूटता है || २१८ || नैष्ठिक श्रावकको गाय आदि पशुओंके द्वारा अपनी जीविका नहीं करनी चाहिये । यदि अपने उपभोगके लिए रखे भी तो बन्धन आदिसे रहित रखना चाहिये और जिनके साथ निर्दय व्यवहार न करे तथा पशुओं की रक्षा में निर्दयी पुरुषोंको नियोजित नहीं करना चाहिये || २१९ || मिध्यादृष्टि पुरुष संयम (मन और इन्द्रियोंका वश करना, त्रस तथा स्थावर जीवोंकी रक्षाके) बिना पञ्चाग्नि आदिसे एकाग्रतापूर्वक बहुत तपश्चरण करके तपादिके प्रभावसे देव होकर भी फिर संसारी हो जाता है || २२०॥ संयम बिना कितना भी तपश्चरण क्यों न किया जाय वह सब निष्फल है इसलिये संयमी होना जीवमात्रको आवश्यक है । जो पुरुष सम्यग्दर्शन- रहित ज्ञान, ज्ञान-रहित चारित्र तथा संयम-रहित तप धारण करता है उसका यह धारण करना सब निष्प्रयोजन है ||२२१|| इस पवित्र मानव पर्यायको छोड़कर और किसी पर्यायमें जीवोंको संयम नहीं होता है । ऐसा समझकर आत्महित चाहनेवाले सत्पुरुषोंको कालको एक कला भी संयमके बिना नहीं खोनी चाहिये || २२२ ॥ | मैंने गृहस्थोंके जो छह कर्म हैं उनका वर्णन किया । वे गृहस्थ वर्णभेदसे - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इस प्रकार चार भेद रूप हैं ||२२३ || जो द्विजन्मा ब्राह्मण हैं उनके – पूजन करना, कराना, स्वयं पढ़ना, पढ़ाना, दान देना तथा दान लेना ये छह कर्म हैं ||२२४ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य इन तीन वर्णोंक यजन ( पूजन करना) अध्ययन (पढ़ना) तथा दान देना ये तीन कर्म हैं । पुनः वे
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