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धर्मसंग्रह श्रावकाचार सदृम्वाऽणुवती वा भवतनुसुखतो निस्पृहः शान्तमूर्तिमुंत्यो पञ्जाहदादीन्गुणगरिमगुरुन्सम्यगाराघ्य चित्ते । कश्चिद्भष्यो जघन्यः प्रसुरनरभवं सौख्यमासाद्य चञ्चत्सप्ताष्टस्वन्तराले शिवपदमचलं चाश्नुते जन्मतूक्तम् ॥१९९ सम्यक्त्वपूर्वकमुपासकधर्ममित्थं सल्लेखनां तमभिधाय गणेश्वरेऽत्र । जोषं स्थिते प्रविचकास सभा समस्ता भानाविवोदयगिरि नलिनोति भद्रम् ॥२०० मेधाविनो गणधरात्स निशम्य धर्म धोगौतमादिति सपौरजनः प्रशस्तम् । भूयो निजं दृढतरां प्रविधाय दृष्टि नत्वा जिनं मुनिवरांश्च गृहं जगाम ॥२०१ अनादिकालं भ्रमता मया या नाराधिता कापि विराषितैव ।
बाराधना मङ्गलकारिणों तामाराधयामोह जिनेन्दुभक्तः ॥२०२ करके शुभध्यानसे प्राणोंको छोड़ कर सुखपूर्ण सर्वार्थसिद्धिको प्राप्त होता है ॥१९८॥ जो संसारसम्बन्धी अत्यल्प विषय सुखसे निरभिलाषी है जो शान्तस्वरूपका धारक है, वह फिर सम्यग्दृष्टि हो अथवा अणुव्रतका धारक हो ऐसा कोई जघन्य आराधक भव्यपुरुष-मृत्युके समय अपने चित्तमें गुणके महत्त्वसे महनीय अर्हन्तादि पञ्चपरमेष्ठी का आराधन करके तथा देवगति और मानवजन्ममें होने वाले उत्तम सुखोंका अनुभव करके सातवें आठवें भवमें अविनश्वर शिव-सुखको प्राप्त होता है ।।१९९|| महाराज श्रेणिकको-इस प्रकार सम्यक्त्वपूर्वक श्रावक धर्मका तथा सल्लेखनाका उपदेश देकर जब भगवान गौतम गणधर चुप हो रहे उस समय सारी सभा इस प्रकार प्रफुल्लित हुई जिस प्रकार कि दिनमणिको उदयगिरिका आश्रय लेने पर कमलिनी प्रफुल्लित होती है ।।२००॥ राजगृह नगर निवासी भव्यजनोंके साथ महाराज श्रेणिक बुद्धिशाली भगवान् गौतम गणधरसे उपर्युक्त उपासक धर्मको सुनकर अपने सम्यग्दर्शनको और भी सुदृढ़ करके समवशरणमें विराजमान वीरजिनेन्द्र तथा अन्य मुनिराजोंको अभिवादन करके अपने गृह गये ॥२०१॥ ग्रन्यकार महाराज श्रेणिकके रूपमें अनुताप करते हैं कि-अहो ! अनादिकालसे संसारमें भ्रमण करते हुए मेंने जिनका कभी आराधन न किया किन्तु प्रत्युत विराधना की। आज कल्याणकारिणी उसी बाराधनाका जिन चन्द्रका पादसेवी होकर आराधन करूंगा ॥२०२।।
इति श्री सरिधीजिनचन्द्रान्तेवासिना पण्डितमेधाविना विरचिते श्रीधर्मसंग्रह • सल्लेखनास्वरूपकथनं श्रेणिकस्य राजगृहप्रवेशनं सप्तमोऽधिकारः ॥७॥
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