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श्रावकाचार-संग्रह हरिताङ्करबोजाम्बुलवणाद्यप्रासुकं त्यजन् । जाग्रत्कृपश्चतुनिष्ठः सचित्तविरतः स्मृतः ॥८ पादेनापि स्पृशन्नर्थवशाद्योऽति ऋतीयते । हरितान्याश्रितानन्तनिगोतानि स भोक्ष्यते ॥९ अहो जिनोक्तिनिर्णोतिरहो अक्षजितिः सताम् । नालक्ष्यजन्त्वपि हरित प्सान्त्येतेऽसुक्षयेऽपि यत् ॥१० सचित्तभोजनं यत्प्राङ् मलत्वेन जिहासितम् । व्रतयत्यङ्गिपञ्चत्वचकितस्तच्च पञ्चमः ॥११ स्त्रीवैराग्यनिमित्तैकचित्तः प्राग्वृत्तनिष्ठितः । यस्त्रिधाऽह्नि भजेन्न स्त्री रात्रिभक्तव्रतस्तु सः ॥१२ अहो चित्रं धृतिमतां सङ्कल्पच्छेदकौशलम् । यन्नामापि मुदे साऽपि दृष्टा येन तृणायते ॥१३ रात्रावपि ऋतावेव सन्तानार्थमृतावपि । भजन्ति वशिनः कान्तां न तु पर्वदिनादिषु ॥१४ चौथी प्रतिमा धारक श्रावकोंकी हम स्तुति करते हैं। भावार्थ-जो श्रावक पापोंका नाश करनेके लिये पर्वको रात्रिको संयमीके समान कायोत्सर्ग-विधानसे व्यतीत करते हैं तथा किसी परीषह और उपसर्गसे क्षुब्ध नहीं होते वे धन्य हैं ॥७॥ प्रथम चार प्रतिमाओंका निर्दोष पालक तथा प्रासुक नहीं किये गये हरे अंकुर, हरे बीज, जल और नमक आदि पदार्थोंको नहीं खानवाला दयामूर्ति श्रावक सचित्तत्याग प्रतिमावान् माना गया है।।८।। जो श्रावक प्रयोजन वश पैरसे भी हरी वनस्पतियोंको छूता हुआ अपनी अत्यन्त निन्दा करता है वह श्रावक मिले हुए हैं अनन्तनिगोदिया जीव जिसम ऐसी हरी वनस्पतियोंको खावेगा क्या ॥९|| सज्जनोंका जिनागमसम्बन्धी निर्णय तथा इंद्रियविजय आश्चर्यजनक है क्योंकि ये सज्जन दिखाई नहीं देते हैं जन्तु जिसमें ऐसी भी हरी वनस्पतिको प्राणों का क्षय होनेपर भी नहीं खाते हैं । भावार्थ-सचित्तत्यागी श्रावक जिनमें प्रत्यक्ष जीव दिखाई नहीं देते हैं तो भी केवल आगमके कथनके विश्वाससे उस सचित्त वनस्पतिका प्राण जानेपर भी भक्षण नहीं करते । उनका आगम विश्वास और इन्द्रिय विजय प्रशंसनीय है ।।१०।।
व्रती श्रावकने जो सचित्तभोजन पहले भोगोपभोगपरिमाणव्रतके अतिचाररूपसे छोड़ा था उस सचित्तभोजनको प्राणियोंके मरणसे भयभीत पंचम प्रतिमाधारी व्रतरूपसे छोड़ता है । भावार्थ-जो सचित्तभोजन व्रतप्रतिमा में भोगोपभोगपरिमाणव्रतके अतिचाररूपसे छोड़ा जाता है उसी सचित्तभोजनको पंचम प्रतिमाधारी 'व्रत' रूपसे छोड़ता है ॥११।। प्राथमिक पांच प्रतिमाओंके आचरणमें परिपक्व और स्त्रीसे वैराग्य होनेके कारणोंमें दत्तावधान होता हुआ जो श्रावक मन वच काय और कृत कारित अनुमोदनासे दिनमें स्त्रीको सेवन नहीं करता है वह रात्रिभक्तत्याग प्रतिमावाला कहलाता है ।।१२।। जिस स्त्रीका नाम भी आनन्दके होता है, ऐसी चक्षुके द्वारा देखी गई भी वह स्त्री जिन मनोव्यापारके सामर्थ्यसे तृणके समान मालूम होती है उन धेर्यशाली पुरुषोंका वह मनोव्यापारके निरोधका सामर्थ्य बहुत ही आश्चर्यकारक है। भावार्थ-छठी प्रतिमाधारी विलक्षणधृतिके धारक श्रावकका मनोनिग्रह कितना उत्तम है कि जिस कामिनीके नाममात्रके श्रवणसे लोगोंको आनन्दकी कल्पना होती है उसको प्रत्यक्ष देखते हुए भी तृणवत् मानता है। अर्थात् उसे वह भोगरूपसे प्रतिभासित नहीं होती ॥१३॥ जितेन्द्रिय व्यक्ति रात्रिमें भी ऋतुकालमें ही, ऋतुकालमें भी सन्तानके लिये ही स्त्रीको सेवन करते हैं, किन्तु अष्टमी आदि पर्वके दिनोंमें तो किसी तरह भी स्त्रीको सेवन नहीं करते। भावार्थ-जितेन्द्रिय पुरुष रात्रिमें ही, ऋतुकालमें ही, केवल सन्तानकी चाहसे ही स्त्रीसेवन करते हैं, विषयसुखकी अभिलाषासे नहीं। तथा अष्टमी चतुर्दशी और अष्टाह्निका आदि पर्व दिनोंमें स्त्रीसेवनका सर्वथा परित्याग करते हैं ॥१४॥ इस ग्रन्थमें रात्रिमें स्त्रीसेवनका व्रत ग्रहण करनेसे रात्रिभक्तव्रती कहा
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