________________
७४
श्रावकाचार-संग्रह
पञ्चाचारक्रियोद्युक्तो निष्क्रमिष्यन्नसौ गृहात् । आपृच्छेद् गुरुन् बन्धून् पुत्रादोंश्च यथोचितम् ॥३४ सुदृनिवृत्ततपसां मुमुक्षोनिर्मलीकृतौ । यत्नो विनय आचारो वोर्याच्छुद्धेषु तेषु तु ||३५ इति चर्यां गृहत्यागपर्यन्तां नैष्ठिकाग्रणीः । निष्ठाय साधकत्वाय पौरस्त्यपदमाश्रयेत् ॥३६ तत्तद्वतास्त्रनिभिन्नश्वसन्मोहमहाभटः । उद्दिष्टं पिण्डमप्युझे दुत्कुष्टः श्रावको न्तिमः ॥३७ स द्वधा प्रथमः श्मश्रुमूर्धजानपनाययेत् । सितकौपी संव्यानः कर्तर्या वा क्षुरेण वा ॥३८ इसलिये मुझे भिक्षावृत्तिसे प्राप्त आहाररूप अमृतका भोजन करना ही श्रेयस्कर है ॥३२-३३।। पञ्चाचारके पालनमें तत्पर और घरसे निकलनेकी इच्छा करनेवाला यह श्रावक गुरुओंसे बन्धुओंसे
और पुत्रादिकोंसे यथायोग्य पूछे । विशेषार्थ-यह श्रावक द्रव्य और भावरूपी घरसे निकलते समय यथायोग्य रीतिसे गुरु, बन्धु और पुत्र आदिकसे पूछे और ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप आचार और वीर्याचार ये पाँच आचारोंके पालनमें उद्यत हो। काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, अर्थ, व्यञ्जन और तदुभय इन आठ अंगोंसे युक्त हे ज्ञान ! यह निश्चित समझो कि तुम शुद्ध आत्माके नहीं हो। तुम्हारा आश्रय हम तभी तक लेते हैं जबतक हमें शुद्धात्माकी प्राप्ति नहीं होती है । तुम मार्ग हो, साध्य नहीं। इसी प्रकार पाँच आचारोंके चिन्तवनमें विचार करना चाहिये । २-निःशंकित आदि अङ्गसहित हे दर्शनाचार ! २–पञ्चमहाव्रत, तीनगुप्ति, पाँचसमिति रूप हे त्रयोदशविध चारित्राचार ! ४-अनशनः दि छह बहिरङ्ग और प्रायश्चित्तादि अन्तरङ्ग भेदरूप हे तप आचार तथा ५-समस्त इतर आपार प्रवर्तक और अपनी शक्तिको नहीं छिपाने रूप हे वीर्याचार ! तुम तभी तक हमारे हो जब तक हमने शुद्धात्माको नहीं पाया है। इस प्रकार चितवन करे। इसी प्रकार हे मेरे शरीरके माता, पिता, स्त्री और पुत्रके आत्मन् ! तुम अपने अन्तरङ्गमें समझो कि मैं वास्तव में तुम्हारा नहीं हूँ, इस लिये मुझसे मोह मत करो। इस प्रकारकी भावनासे यह आत्मा गृहत्याग कर शुद्धात्मोपलब्धिकी ओर बढ़ता है ।।३४।। मोक्षकी इच्छा रखने वाला श्रावकका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तपके निर्दोष करनेके विषयमें यत्न विनय कहलाता है और निर्मल किये गये उन सम्यग्दर्शनादिकके विषयमें प्रयत्न आचार कहलाता है। भावार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तपको निर्दोष करनेके लिये जो यत्न किया जाता है उसे विनय कहते हैं और निर्दोष हुए इन चारोंमें अपनी शक्तिको नहीं छिपा कर जो यत्न किया जाता है उसे आचार कहते हैं ॥३५॥
नैष्ठिकोंमें मुख्य अनुमतित्याग प्रतिमावान् श्रावक पूर्वोक्त कथनानुसार गृहत्यागपर्यन्त गृहस्थाचारको समाप्त करके साधकत्वकी प्राप्ति अर्थात् आत्मशुद्धिके लिये अग्रिम पदको धारण करे। भावार्थ-दशमीप्रतिमा श्रावकका उत्कृष्ट स्थान है । यहाँ पर श्रावकका नैष्ठिकपना पूरा हो जाता है। दशमप्रतिमाधारी इस नैष्ठिकत्वको पूर्ण करके साधकत्वकी प्राप्ति ( आत्मशुद्धि ) के लिए ग्यारहवीं उद्दिष्टत्याग प्रतिमाको ग्रहण करनेके लिये प्रयत्नवान् होता है ।।३६।। उन पूर्वोक्त व्रतरूपी अस्त्रोके प्रहारसे अत्यन्त नष्ट हो करके भी श्वास लेता हुआ है मोहरूपी महाभट जिसके ऐसा जो श्रावक उद्दिष्ट-अपने उद्देशसे बनाये गये भोजनको और आसन आदिकको भी छोड़ता है वह ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। भावार्थ-जो पूर्वोक्त दशप्रतिमाओंमें परिपक्व होकर अपने उद्देश्यसे बनाये गये भोजन और आसन आदिकको भी ग्रहण नहीं करता वह ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है ॥३७॥ वह उद्दिष्टविरतश्रावक दो प्रकारका है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org