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श्रावकाचार-संग्रह पत्युः स्त्रीणामुपेक्षव वैरभावस्य कारणम् । लोकद्वयं हितं वाञ्छंस्तदपेक्षेत तां सदा ॥१७३ नित्यं पतिमनीभूय स्थातव्यं कुलस्त्रिया । श्रीधर्मशर्मकीर्तीनां निलयो हि पतिवता ॥१७४ अयेत्कायमनस्तापशमान्तं भुक्तिवत्स्त्रियम् । नश्यन्ति धर्मकामार्थास्तस्याः खल्वतिसेवया ॥१७५ यत्नं कुर्वीत तत्पल्यां पुत्रं जनयितुं सदा । स्थापयितुं सदाचारे त्रातुं च स्वमिवापथात् ॥१७६ सदपत्ये गृही स्वीयं भारं दत्वा निराकुलः । सुशिष्ये सूरिवत्प्रीत्या प्रोद्यमेत परे पदे ॥१७७
तापापहान् श्रीजिनचन्द्रपादानाश्रित्य धर्म प्रथमे कियन्तम् । कालं स्थिरीभूय विरज्य भोगान्मेधाविकोऽयं प्रतिकः पुनः स्यात् ॥१७८
वह धर्मसे च्युत कर देगी ॥१७२।। पति द्वारा स्त्रियोंकी उपेक्षा ही तो आपसमें वैरका कारण हो जाती है इसोलिये जिन्हें अपने दोनों लोक सुधारना है उन्हें चाहिये कि वे सदा स्त्रियोंकी अपेक्षा करें ॥१७३।। जो अच्छे कुलकी स्त्रियाँ हैं उन्हें चाहिये कि वे निरन्तर अपने स्वामीके अनुसार चलें, क्योंकि जो पतिव्रता स्त्रियाँ होती हैं वे धर्म, सुख और कोत्ति इनका प्रधान स्थान होती हैं ॥१७४|| जब तक क्षुधाकी बाधा शान्त नहीं होती है तभी तक भोजन किया जाता है । क्षुधाकी बाधाके मिट जाने पर भी जो लोग लोलुपतासे अधिक भोजन कर लेते हैं उन्हें सिवाय दुःखके और कुछ नहीं होता। उसी तरह जब तक शरीर और मनका ताप न मिटे तभी तक स्त्रीका सेवन करना चाहिये। क्योंकि इस नियमको छोड़ कर जो लोग निरन्तर स्त्रीका सेवन करते हैं उन लोगोंके धर्म अर्थ काम सभी नष्ट हो जाते हैं ।।१७५।। श्रावकको चाहिये कि स्त्रीमें पुत्र होनेकी सदा चेष्टा करता रहे । तथा उस पुत्रको सदाचारमें लगानेके लिये तथा अपने समान कुमार्गसे रक्षण करनेके लिये भी प्रयत्न करना चाहिये ॥१७६। जिस तरह आचार्य अपने पट्टका भार किसी उत्तम शिष्यको देकर आप निराकुल हो जाते हैं उसो तरह गृहस्थ भी अपने सद्गुणो पुत्रको गृह सम्बन्धी सब भार प्रीति-पूर्वक देकर और सर्व तरहसे निराकुल होकर उत्कृष्ट पदकी प्राप्तिके लिये प्रयत्नशील (उद्यमी) होवे ॥१७७।। जो पुरुष इस संसार रूप भयंकर तापके नाश करनेवाले श्री जिनदेवके चरण कमलोंका आश्रय लेकर और कितने काल पर्यन्त प्रथम धर्म ( दर्शनप्रतिमा ) में स्थिर रहकर पश्चात् विषय भोगादिसे विरक्त होता है मेधावी वह पुरुष इसके बाद व्रतप्रतिमाका धारक कहा जाता है ।।१७८॥
इति सूरिश्रीजिनचन्द्रान्तेवासिना पंडितमेधाविना विरचिते श्रीधर्मसंग्रहे
__दर्शनप्रतिमावर्णनो नाम द्वितीयोऽधिकारः ॥ २॥
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