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१६.
श्रावकाचार-संग्रह सचित्ताऽचित्तमिश्रेण द्रव्यपूजा त्रिधा भवेत् । प्रत्यक्षमहदादीनां सचित्ताऽर्चा जलादिभिः ॥९१ तेषां तु यच्छरीराणां पूजनं साऽपरार्चना । यत्पुनः क्रियते पूजा द्वयोः सा मिश्रसंज्ञिका ।।९२ अथवा सा द्रव्यपूजा ज्ञात्वा सूत्रानुसारतः । नोआगमागमाभ्यां च भव्यैर्याऽत्र विधीयते ॥९३ गर्भजन्मतपोज्ञानलाभनिर्वाणसम्भवे । क्षेत्र निषधकासु प्राविधिना क्षेत्रपूजनम् ॥९४ गर्भादिपञ्चकल्याणमहतां यद्दिनेऽभवत् । तथा नन्दीश्वरे रत्नत्रयपर्वाणि चार्चनम् ॥९५ स्नपनं क्रियते नाना रसैरिक्षुघृतादिभिः । तत्र गोतादिमाङ्गल्यं कालपूजा भवेदियम् ॥९६ यदनन्तचतुष्का_विधाय गुणकीर्तनम् । त्रिकालं क्रियते देववन्दना भावपूजनम् ॥९७ परमेष्ठिपदैर्जापः क्रियते यत्स्वशक्तितः । अथवाऽहंद्गुणस्तोत्रं साप्यर्चा भावपूर्विका ॥९८ पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपजितम् । ध्यायते यत्र तद्विद्धि भावार्चनमनुत्तरम् ।।९९ एतद्धदास्तु विज्ञेया नाना ग्रन्थानुसारतः । ग्रन्थभूयस्त्वभीतेन प्रपञ्चो नेह तन्यते ॥१०० एवं पूजा समुद्दिष्टा षोढा जैनेन्द्रशासने । इदानों फलमेतस्या वर्ण्यते नृपते ! शृणु ॥१०१ जिनपूजा कृता हन्ति पापं नाना भवोद्भवम् । बहुकालचितं काष्ठराशि वह्निरिवाऽखिलम् ॥१०२ प्रतिष्ठापाठोंके अनुसार करना स्थापनापूजा जानना चाहिये ।।९०॥ द्रव्य पूजाके सचित्त द्रव्यपूजा, अचित्त द्रव्यपूजा, तथा मिश्रद्रव्यपूजा इस तरह तीन विकल्प हैं। साक्षात् अर्हन्तादिकी जलादि द्रव्योंसे पूजा करनेको सचित्त द्रव्य पूजा कहते हैं ॥९१॥ और उन अर्हन्तादिके शरीरको पूजा करने को अचित्त द्रव्यपूजा कहते हैं तथा अर्हन्तादिकी और उनके शरीरको एक साथ पूजा करनेको मिश्र द्रव्यपूजा कहते हैं ॥१२॥ अथवा शास्त्रानुसार, नोआगम तथा आगमसे द्रव्य पूजाको समझ कर जो भव्य पुरुषोंके द्वारा पूजा की जाती है उसे भी द्रव्यपूजा समझना चाहिये ॥९३॥ जिन क्षेत्रोंमें जिन भगवान्के गर्भकल्याण, जन्मकल्याण, दीक्षाकल्याण, ज्ञानकल्याण तथा निर्वाणकल्याण हुए हैं उनका पूर्वविधिके अनुसार जलादि आठद्रव्योंसे पूजन करनेको क्षेत्रपूजन कहते हैं ।।९४।। जिस दिन अर्हन्त भगवान्के गर्भकल्याण, जन्मकल्याण, दीक्षा कल्याण, केवलज्ञान कल्याण तथा निर्वाणकल्याण हुए हैं उस दिन, नन्दीश्वरमें तथा रत्नत्रय पर्वमें जिन भगवान्की पूजा करनेको, इक्षुरस घृत दूध दही आदि नाना प्रकारके रसोंसे अभिषेक करनेको तथा गीत, सङ्गीतादि माङ्गलिक कार्यके करनेको काल पूजन कहते हैं ।।९५-९६॥ अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्यादि अनन्तचतुष्टयसे युक्त जिन भगवान्के गुणोंको स्तुति-पूर्वक जो त्रिकाल सामायिक की जाती है उसे भावपूजा कहते हैं ॥९७॥ अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु इन पंच परमेष्ठियोंका अपनी शक्ति पूर्वक जो नाम स्मरण किया जाता है उसे तथा अर्हन्तभगवान्के गुणोंका स्तवन करनेको भाव पूजन कहते हैं ॥९८॥ तथा पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार प्रकारके ध्यानोंका अच्छी तरह ध्यान करनेको उत्तम भावपूजन कहते हैं ॥१९॥ ऊपर पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, तथा रूपातीत इस प्रकार ध्यानके चार भेद कह आये हैं इनका विशेष खुलासा वर्णन-अन्य अन्य ग्रन्थोंसे जानना चाहिये। ग्रन्थ बढ़ जानेके भयसे यहां विस्तार पूर्वक वर्णन नहीं किया गया है ।।१००। इस तरह जैनशास्त्रोंमें पूजनके जो छह भेद किये हैं उनका वर्णन तो हम कर चुके । हे महाराज श्रेणिक ! अब इस समय पूजनके फलका वर्णन करते हैं उसे तुम सुनो ॥१०१।। जिस तरह अग्नि बहुत समयसे इकट्ठे किये हुए समस्त काष्ठ-समूहको क्षण मात्रमें जला देती है उसी तरह जिन भगवान्का पूजन १. इनका विशेष स्वरूप ज्ञानार्णवसे जानना चाहिए। -सम्पादक
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